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________________ आराधनासमुच्चयम् ७२२९ उन पृथिवियों में जीव मधुमक्खियों के छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानों में नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं। नारकियों के शरीर अशुभ नामकर्म के उदय से होने के कारण उत्तरोत्तर (आगे पृथिवियों में) अशुभ हैं। उनकी विकृत आकति है। हंडक संस्थान है और देखने में बरे लगते हैं। जिस प्रकार श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रुधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, मांस, केश, अस्थि, चर्म, अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है। उससे भी अधिक अशुभ सामग्री युक्त नारकियों का वैक्रियिक शरीर होता है अर्थात् वैक्रियिक होते हुए भी उनका शरीर वीभत्स सामग्री युक्त होता है। जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुए का जल फिर से मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छेदा गया नारकियों का शरीर फिर से मिल जाता है। नारकियों के शरीर कदलीघात के बिना आयु के अन्त में वायु से ताड़ित मेघों के समान नि:शेष विलीन हो जाते हैं। वे नारकी जीव चक्र, आण, शूली, तोमर. मुद्गर, करोंत, भाला, सूई, मूसल और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र, वन एवं पर्वत की आग तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाव और सिंह इन पशुओं के अनुरूप परस्पर सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। अन्य नारकी जीव गहरा बिल, धुआँ, वायु, अत्यन्त तपा हुआ खप्पर, यन्त्र, चूल्हा, कण्डनी (एक प्रकार का कूटने का उपकरण), चक्की और दर्बी (बी), इनके आकार रूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं। उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल तथा शोणित और कीड़ों से युक्त सरिता, द्रह, कूप और वापी आदि रूप पृथक्-पृथक् रूप से रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। (तात्पर्य यह कि नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है। देवों के समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती है।) ___ छठे नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशू, भिण्डिपाल आदि अनेक आयुधरूप एकत्त्व विक्रिया होती है। सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े, चींटी आदि रूप से एकत्व विक्रिया होती है। मारकी निरन्तर अशुभतर लेश्या परिणाम, देह, वेदना व विक्रिया वाले होते हैं। नारकी जीव मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं। इस प्रकार सातों पृथिवियों में प्रारम्भ के चार गुणस्थान होते हैं। प्रथम पृथ्वी में नारकीय जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं; शेष दो सम्यग्दर्शन से युक्त होते हैं। नारकियों को एक क्षण भी मानसिक शांति नहीं मिलती है। यद्यपि वहाँ पर सम्यग्दर्शन हो सकता
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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