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आराधनासमुच्चयम् ८
अट्ठावयम्पि उहो, चंपाए वासुपुज्ज जिणणाहो । उज्जते णेमि जिणो, पावाए णिब्बुदो महावीरो ॥ १ ॥ वीसं तु जिणवरिंदा अमरासुर-वंदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहरे, णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥ २ ॥ १
अष्टापद (कैलास पर्वत) पर आदिनाथ भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया है। वासुपूज्य जिननाथ ने चम्पापुर से निर्वाण प्राप्त किया है, ऊर्जयन्त ( गिरनार ) पर्वत पर नेमिनाथ ने निर्वाण प्राप्त किया है, पावापुर से महावीर भगवान मोक्ष पधारे हैं तथा देवों के द्वारा पूजित, क्लेश जिनके शांत हो गये हैं, जिनवरों में श्रेष्ठ ऐसे अजितादि बीस तीर्थंकरों ने सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया है। ऐसे सिद्धक्षेत्रों को मेरा बारंबार नमस्कार हो, इत्यादि रूप से निर्वाणक्षेत्र की स्तुति करना क्षेत्रमंगल है।
अथवा जिनेन्द्र भगवान का पाँच सौ धनुष से लेकर सात हाथ प्रमाण जो शरीर है वह तीर्थंकर की आत्मा से पवित्र होने से क्षेत्र मंगल स्वरूप है । उसकी स्तुति करना क्षेत्र मंगल है।
ये गुरु चरण जहाँ धरें जग में तीरथ होय ।
सो रज मम मस्तक चढ़ो 'भूधर' मांगे सोय ॥ ( गुरु स्तवन )
महान् पुरुषों के द्वारा सेवित क्षेत्र महान् पवित्र होता है। जिस प्रकार इक्षु रस के संयोग से आटे में मधुरता आती है उसी प्रकार महापुरुषों के चरण स्पर्श से वहाँ की भूमि परम पवित्र एवं मंगलमय बन जाती है। अतः वह क्षेत्र मंगल कहलाता है।
जिस तिथि में वा जिस संध्या काल आदि में तीर्थकरों ने जन्म लिया है, दीक्षा ग्रहण की है, केवलज्ञान प्राप्त किया है तथा मोक्षपद प्राप्त किया है वह तिथि, वह समय परम मंगल स्वरूप है। सम्मुख चन्द्रमा का होना, योगिनी पीठ पीछे होना, आदि जो शुभ मुहूर्त हैं वे एक तरफ हैं और तीर्थंकर प्रभु के जन्म आदि का दिन एक तरफ है । उसके समान कोई दूसरा मंगल दिवस नहीं है, अतः तीर्थंकरों के जन्मादि की तिथि काल मंगल है।
जिनेन्द्र देव की अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय के अनुसार स्तुति करना भाव मंगल है।
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः ।
दर्पणल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिकाः यत्र ।।
१. निर्वाणकाण्ड प्राकृत गाथा १-२ २. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय- मंगलाचरण |