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________________ आराधनासमुच्चयम् ९९ अन्वयार्थ - रूपिद्रव्यनिबद्धं - रूपीद्रव्य जिसका विषय है ऐसा । देशप्रत्यक्षं - एकदेश प्रत्यक्ष । अवधिविज्ञानं -- अवधिज्ञान है। देशाधिपरमावधिसर्वावधिभेदतः - देशावधि, परमावधि, सर्वावधि के भेद से। त्रिविधं - तीन प्रकार का है।१७० ॥ देशावधिविज्ञानं - देशावधि अवधिज्ञान । भवगुणकारणतया - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय की अपेक्षा। द्विधा - दो प्रकार | भवति - होता है। तन्त्र - उनमें। एकैकं - भवप्रत्यय अवधिज्ञान एक प्रकार का है, परन्तु गुणप्रत्यय, जघन्यमध्योत्तम विकल्पात् - 'जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से। त्रिविधं - तीन प्रकार का है। देशावधि अवधिज्ञान । द्रव्यं - द्रव्य । क्षेत्रं - क्षेत्र । कालं - काल | च - और। भावं - भाव के। प्रति - प्रति। जघन्यमध्यपरं - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है। मध्यमसंख्यातविधं - मध्यम अवधिज्ञान संख्यात प्रकार का है। शेषद्वितीयं - शेष दोनों (उत्कृष्ट और जघन्यज्ञान)। तत् - वह। एकैकं - एक-एक प्रकार का है॥७१-७२।। गुणकारणजं - गुणों के कारण से उत्पन्न होने वाला गुणप्रत्यय अवधि ज्ञान। तिर्यङ्मर्येषु - तिर्यंच और मनुष्यों में होता है। तु - परन्तु वह गुणप्रत्यय। विकल्पतः - विकल्प से । षड्भेदं - छह प्रकार का है। भवकारणजं - भवप्रत्ययअवधि - ज्ञान | नारकदेवेषु - नारकी और देवों में होता है। तत् - वह भी। बहुप्रभेदं - बहुत प्रकार का है॥७३|| भवकारणं - भवप्रत्यय अवधिज्ञान। अविकलात्मदेशभवं - अविकल आत्मप्रदेश से उत्पन्न होने के कारण इसमें। प्रादेशिकं - आत्मप्रदेश में उत्पन्न स्थान की। गौण्यं - गौणता है। हि - निश्चय से, इस भवप्रत्यय में जो। प्रतिपाति - प्रतिपाति है वह। लोकमात्रं - लोकप्रमाण है। तु - और। अप्रतिपाति - अप्रतिपाति है वह। ततः - उस प्रतिपाति की अपेक्षा। अभ्यधिक - अति अधिक है अर्थात् प्रतिपाति की अपेक्षा अप्रतिपाति के अति अधिक भेद हैं ।।७४॥ गुणकारणस्य - गुणप्रत्यय अवधि के। नाभिः - नाभि के । उपरि - ऊपर। श्रीवृक्षादीनि - श्रीवृक्ष आदि । शुभानि - शुभ। चिह्नानि - चिह्न । भवन्ति -- होते हैं। स: - गुणप्रत्यय अवधि वाला। तेन - उसी । नेत्रेण - नेत्र से। एष - ही। हि - निश्चय से। स्फुटं - स्फुट। पश्येत् - देखता है ।।७५ ।। अर्थ - जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमा से युक्त अपने विषयभूत पदार्थ को जाने, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। सीमा से युक्त जानने के कारण परमागम में इसे सीमाज्ञान कहा गया है। अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से या परिमित विषय वाला होने से अवधि कहलाता है। अथवा, अवधि मर्यादा, अवधिना प्रतिबद्धं ज्ञानमवधिज्ञानम् । तथाहि - 'रूपिष्ववधेः' (त.सू. १/ २७) इति 'अव्' पूर्वक 'धा' धातु से कर्म आदि साधनों में अवधि शब्द बनता है। 'अव्' शब्द 'अध:वाची'
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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