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________________ आराधनासमुच्चयम् - ९२ जो चन्द्रमा की आयु, विमान, परिवार, ऋद्धि, अयनगमन, हानिवृद्धि, ऊँचाई, सकलांश, अर्धांश, चतुर्थांश एवं ग्रहण आदि का वर्णन करता है, वह चन्द्रप्रज्ञप्ति नामक परिक्रम है। जिसमें सूर्य की आयु, विमान, परिवार, ऋद्धि, अयन (दक्षिणायन. उत्तरायण), गमन 'एक मुहर्न में कितने योजन गमन करता है, किस-किस ऋतु में किन-किन गलियों में गमन करता है। उनका परिमाण तथा बिम्ब की ऊँचाई, दिन की हानि-वृद्धि, किरणों का प्रभाण, प्रकाश सकलांश, अर्द्धाश, चतुर्थांश आदि का कथन है, उसको सूर्यप्रज्ञप्ति कहते हैं। जिसमें जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरु, छह कुलाचल, पय आदि तालाब, भरतादि सात क्षेत्र, कुण्ड, वेदिका, वन, व्यन्तरों का आवास, गंगा आदि महानदियाँ, भूतारण्य, देवारण्य, विजयार्धपर्वत आदि का कथन है, वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति है। जिसमें असंख्यात द्वीप-समुद्रों का तथा तत्रस्थ अकृत्रिम चैत्यालयों का कधन किया गया है, वह द्वीपसागरप्रज्ञप्ति है। अर्थात् इसमें द्वीप-समुद्रों में स्थित ज्योतिष देवों के स्थान, व्यन्तर देवों के भवन, उनमें स्थित अकृत्रिम जिनमन्दिर, उनमें स्थित प्रासाद, उनका व्यास, तोरण, मण्डप, मुख्य मण्डप, माला आदि का भी कथन है। ___ व्याख्या प्रज्ञप्ति अधिकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल रूप छह द्रव्य, उनके भेद, भव्य, अभव्य जीवों का परिमाण, उनका लक्षण, अनन्तसिद्ध, परम्परासिद्ध, स्थानप्राप्त आदि का विस्तारपूर्वक कथन करता है। दृष्टिवाद के दूसरे भेद सूत्र में तीन सौ त्रेसठ मिथ्यादृष्टियों का पूर्वपक्षपूर्वक निराकरण है अर्थात् क्रियावादियों के एक सौ अस्सी भेद हैं, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ और विनयवादियों के बत्तीस भेद हैं। इन सर्व तीन सौ त्रेसठ मिथ्या पाखण्डों का खण्डन सूत्र में किया गया है। दृष्टिवाद के तृतीय भेद प्रथमानुयोग में प्रेसठ शलाका पुरुषों का कथन है। अथवा मिथ्यादृष्टि, अव्रतिक और अव्युत्पन्न (अज्ञानी) को प्रथम कहते हैं और अधिकार को अनुयोग कहते हैं। मिथ्यादृष्टि, अव्रतिक और अव्युत्पन्नरूप प्रतिपाद्य का आश्रय लेकर जो अनुयोग प्रवृत्त होता है, उसको प्रथमानुयोगग कहते हैं। दृष्टिवाद के चौथे भेद पूर्व नामक अधिकार के १४ भेद हैं। उत्पादपूर्व - इसमें प्रत्येक द्रव्य के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और उनके संयोगी धर्मों का उल्लेख है। यह उत्पाद पूर्व दस वस्तुगत दो सौ प्राभृतों के एक करोड़ पदों द्वारा जीव, काल और पुद्गल द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का वर्णन करता है। अग्रायणी पूर्व - अग्र अर्थात् द्वादशांगों में प्रधानभूत वस्तु के अयन (ज्ञान) को अनायण कहते हैं और द्वादशांगों में प्रधानभूत वस्तु का कथन करना जिसका प्रयोजन है, वह दूसरा अग्रायणी पूर्व है। यह सात सौ सुनय, दुर्नय, पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व रूप पदार्थों के समूह का निरूपण करता है। इसमें चौदह वस्तु, दो सौ अस्सी प्राभृत और छ्यानवे लाख पद हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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