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आराथनासार - ४२
महाव्रतानि पंचैव पंचैव समितीस्तथा ।
गुहस्तियाक कारिले सगोदावि दिनुः ।। क्व । इह इहाराधनायां । कया। भावसुद्धीए भावशुद्ध्या भावश्चित्तानुरागस्तस्य शुद्ध्या नैर्मल्येन तामंतरेण चारित्रं गगनारविंदमकरंदवत्प्रतिभासते। यदुक्तम्
भावशुद्धिमबिभ्राणाश्चारित्रं कलयंति ये।
त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते तितीर्षति महार्णवम् ।। इति। अस्य त्रयोदशविधस्य चारित्रस्य यथावदनुष्ठानं कदा करिष्यामीति चित्तोल्लासेन शीतवातादिजनितशरीरखेदे सति मनसः संक्लेश-रहितत्वेनेत्यर्थः । न केवलं चारित्रस्य चरणं चारित्राराधना भवति अन्यदपीत्याह। दुविहअसंजमचाओ द्विविधासंयमत्यागः। द्वौ भेदौ प्रकारौ यस्यासौ द्विविधः द्विविधश्चासावसंयमश्च द्विविधासंयम द्विविधासंयमस्य त्यागः द्विविधासंयमत्यागः। द्विविधासंयमस्य किं
"पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुप्ति के पालन करने को १३ प्रकार का चारित्र कहा है।" हे क्षपक ! इस चारित्र का निरतिचार पालन करना चारित्र आराधना है, इसको हृदय में धारण करो।
चित्त के अनुराग को भावशुद्धि कहते हैं। उस भावशुद्धि से चारित्र का पालन करना चारित्र आराधना है। भावशुद्धि के बिना, बाह्य चारित्र का पालन करना आकाश के फूल के मकरंद के समान असत् रूप प्रतिभासित होता है। अर्थात् जैसे आकाश के फूल ही नहीं है, तो फिर उसमें मकरन्द (पराग) कहाँ से हो सकती है, उसी प्रकार हे क्षपक ! भावशुद्धि के बिना चारित्र आराधना नहीं हो सकती। सो ही कहा है
"भावशुद्धि के बिना जो चारित्र को धारण करते हैं वे निश्छिद्र नौका को छोड़कर भुजाओं से महासमुद्र को तैरना चाहते हैं।" ।
हे क्षपक ! “इस तेरह प्रकार के चारित्र का यथावत् जिनेन्द्रकथित शास्त्र के अनुसार पालन कब करूमा" इस प्रकार मानसिक उल्लास (अनुराग) से शीत, वात आदि जनित शारीरिक कष्ट होने पर मनको संक्लेश युक्त नहीं करना ही वास्तविक चारित्र आराधना है।
हे क्षपक ! केवल तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करना ही चारित्र आराधना नहीं है, अपितु चारित्र के साथ दो प्रकार के असंयम का भी त्याग करना चारित्र आराधना है।
प्रश्न - दो प्रकार के असंयम का लक्षण क्या है? उत्तर - इन्द्रिय असंयम और प्राणी असंयम के भेद से असंयम दो प्रकार का है।
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और मन की स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति को नहीं रोकना, इन्द्रिय असंयम है और पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतिरूप पाँच स्थावर और दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और सैनी-असैनी रूप पंचेन्द्रिय स्वरूप त्रस जीवों की प्रमाद के वश हो विराधना करना प्राणीअसंयम है। सो ही कहा है