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आराधनासार - ३८
अथ व्यवहारज्ञानाराधनां प्रतिपादयात
सुत्तत्थभावणा वा तेसिं भावाणमहिगमो जो वा। णाणस्स हवदि एसा उत्ता आराहणा सुत्ते ॥५॥
सूत्रार्थभावना वा तेषां भावानामधिगमो यो था।
ज्ञानस्य भवत्येषा उक्ता आराधना सूत्रे ।।५।। हदि भवति । कासी। आराहणा आराधना । कस्य । णाणस्य ज्ञानस्य । कासावाराधना। एसा एषा। किविशिष्टा। उत्ता उक्ता प्रोक्ता । कस्मिन् । सुत्ते सूत्रे परमागमे। एषेति का। सुत्तत्थभावणा वा सूत्रार्थभावना परमागमभावना | अथवा जो य इति कः । अहिगमो अधिगमः सम्यक् परिज्ञानं केषां। भावाणं भावाना । तेसिं तेषां पूर्वोक्तानामिति योजनिकाद्वारः। सूत्रार्थभावानां वा तेषां भावनां यो वा अधिगभः एषा सूत्र उक्ता ज्ञानस्याराधना भवतीति संक्षेपान्वयद्वारः ।
अब व्यवहार ज्ञान आराधना का प्रतिपादन करते हैं
"उन जीवादि नौ पदार्थों का जो अधिगम होता है उसको जिनागम में ज्ञान की भावना कहा है और उसी को परमागम में ज्ञान की आराधना कहा है अर्थात् यह सूत्रार्थ भावना ही परमागम में ज्ञान की आराधना वा ज्ञानकी भावना है। ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार सत्र में ज्ञान आराधना कही
अक्षर' शुद्ध पढ़ना, अर्ध शुद्ध पढ़ना, दोनों शुद्ध पढ़ना, काल में पढ़ना, विनय से पढ़ना, बहुमान से पड़ना, उपधान से पढ़ना और गुरु का नाम नहीं छिपाना', यह आठ प्रकार का ज्ञानाचार है।
शास्त्रों का पठन करते समय अक्षर, विराम, विसर्ग, रेफ आदि को शुद्ध पढ़ना चाहिए। क्योंकि अक्षर को शुद्ध नहीं पढ़ने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है, जैसे चिंता में एक अनुस्वार छोड़ देने से चिता अर्थ हो जाता है। यदि विराम पर ध्यान नहीं दिया तो "जाने दो मत रोको' इसके दो अर्थ होते हैं जाने दो, मत रोको । जाने दो मत, रोको। अत: विराम पर ध्यान रखकर उसको शुद्ध पड़ना भी आवश्यक है।
पाचक शब्दों को शुद्ध पढ़कर उनका वाच्य अर्थ भी शुद्ध पढ़ना चाहिए। क्योंकि एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं- जैस सैंधव का अर्थ घोड़ा भी है और सैंधा नमक भी। अर्थ प्रकरणवश किया जाता है, भोजन करते समय मैंधव का अर्थ नमक और कहीं बाहर घूमने जाना हो तो घोड़ा।
अज का अर्थ बकरा, ब्रह्मा, जिसमें उत्पन्न होने की शक्ति नहीं है ऐसा शालि धान्य, आदि अनेक अर्थ हैं। शब्दों का अर्थ करते समय पाठक को ध्यान रखना पड़ता है कि इस समय इस शब्द का क्या अर्थ करना चाहिए। शब्दों के अर्थों का ध्यान नहीं रखने से पशुओं के घातरूप यज्ञ की प्रवृत्ति चली। "अजैर्यष्टव्यं' अज का अर्थ है जिसमें अंकुर पैदा होने की शक्ति नहीं है, ऐसा धान्य । परन्तु अज का अर्थ बकरा करके ही पर्वत ने यज्ञ में पशुओं को होमने की प्रथा चलाई थी। इसी प्रकार जितने मत-मतान्तर चले हैं, वे अर्थ की विपरीतता से ही चले हैं।