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आराधनासार-३२
__ अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया, भव्यः पंचेंद्रियः संज्ञी पर्याप्तः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । आदिशब्देन जातिस्मरणादि परिगृह्यते, इत्यौपशमिकसम्यक्त्वलक्षण पूर्ण । अनंतानुबंधिचतुष्कस्य मिथ्यात्वसम्यक्त्वमिथ्यात्वयोश्चोदयक्षयात्तेषामेव सदवस्थारूपोपशमाच्च सम्यक्त्वस्यैकदेशघातिन उदयात् क्षायोपशमिकं चेति सम्यक्त्वं। तासां . पूर्वोक्तानां सप्तानां प्रकृतीनामत्यंतक्षयात् क्षायिकं सम्यक्त्वं । सम्यक्त्वलक्षणं व्याकृत्य कस्यां गतौ कति सम्यक्त्वानि भवंति इति सूच्यते। तत्र नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां पर्याप्तकाना औपशमिकं क्षायोपशमिक चेति सम्यक्त्वद्वयं भवति । प्रथमायां पुनः पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिक क्षायोपशमिकं चेति द्वयं भवति ।
दूसरी काल लब्धि : कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और जधन्य स्थिति की सत्ता में प्रथमोपशम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता है अर्थात् जब आयु कर्म को छोड़कर सात कर्मों की जघन्य चा उत्कृष्ट स्थिति है तो यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व के ब्रह! करने योग्य नहीं होता।
शंका - तो फिर जीन सम्यग्दर्शन ग्रहण करने योग्य कब होता है ?
उत्तर - विशुद्ध परिणामों के द्वारा अंत:कोटाकोटी प्रमाण स्थिति वाले कर्मों के बँधने पर और बँधे हुए कर्मों की स्थिति को संख्यात हजार सागर प्रमाण कम करते-करते अन्त:कोटाकोटी प्रमाण स्थिति कर लेने पर प्रथम सम्यग्दर्शन के ग्रहण करने योग्य होता है। अर्थात् परिणामों की विशुद्धि से सत्ता में पड़े हुए कर्म भी अन्त:कोटाकोटी प्रमाण स्थिति वाले हो जाते हैं और वर्तमान में बंधने वाले कर्म भी अन्तःकोटाकोटी प्रमाण स्थिति पूर्वक ही बँधते हैं तब सम्यक्त्व उत्पन्न होने की योग्यता आती है। भव्य, संज्ञी, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, सर्व विशुद्ध भाव वाले ही प्रथम सम्यग्दर्शन के ग्रहण करने योग्य होते हैं।
आदि शब्द से जाति-स्मरणादि भी ग्रहण किया जाता है अर्थात् जातिस्मरण, दुःखानुभव, जिनमहिमा दर्शन और देव-ऋद्धिदर्शन आदि भी कारण हैं। इस प्रकार के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व सम्यक्त्व और सम्बक्त्व मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों के उपशमन से औपशभिक सम्यक्त्व होता है। इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है तथा अनन्तानुबन्धी चार मिथ्यात्व
और सम्यक्त्व मिथ्यात्व छह प्रकृतियों का सदवस्था रूप उपशम और सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने से जो श्रद्धान रूप परिणाम होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं।
इस प्रकार तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और लक्षण का कथन किया है।
सम्यग्दर्शन का लक्षण कहकर अब किसगति में कौनसा सम्यक्त्व होता है, उसका कथन करते हैं-नरक गति में सारी पृथिवियों में नारकियों के पर्याप्त अवस्था में उपशम और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व होते हैं। अपर्याप्त अवस्था में छह नरकों में सम्यग्दर्शन नहीं होता अर्थात् प्रथम नरक को छोड़कर अन्य नरकों में सम्यादृष्टि उत्पन्न नहीं होता।
प्रथम नरक में अपर्याप्त अवस्था में दो सम्यग्दर्शन होते हैं क्षायिक और क्षायोपमिक । पर्याप्त अवस्था में उपशम, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीन सम्पग्दर्शन होते हैं।
अपर्याप्त अवस्था में जो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहा है, वह कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा से है, जो पर्याप्त होते ही अन्तर्मुहूर्त में क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जायेगा । वास्तविक क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन नरक गति में अपर्याप्त अवस्था में नहीं है।