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आराधनासार २६
*माणं
यहणं कीरड़ जं सुत्तउत्तजुत्तीहिं ।
आराहणा हु भणिया सम्मत्ते सा मुणिदेहिं ॥ ४ ॥ भावानां श्रद्धानं क्रियते यत्सूत्रोक्तयुक्तिभिः ।
आराधना हि भणिता सम्यक्त्वे सा मुनीन्द्रैः ॥ ४ ॥
भणिया भणिता । काऽसौ । सा आराहणा आराधना । कन्थं । हु खलु, हुशब्दः खल्वर्थे प्राकृतत्वात् । कैः । मुणिंदेहिं मुनींद्रैः । क्व सम्मत्ते सम्यक्त्वे । सेति का। कीरड़ क्रियते । किं तत् । यत् यदिति किं । सद्दहणं श्रद्धानं विश्वासो रुचिः प्रतीतिरिति यावत् । केषां ? भावाणं भावानां जीवादिपदार्थानां ।
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काभिः करणताभिः । सुत्तत्तजुत्तीहिं सूत्रोक्तयुक्तिभि: सूत्रे परमागमे उक्ता या युक्तयः सूत्रोक्तयुक्तयस्ताभिः सूत्रोक्तयुक्तिभिरिति योजनिकाद्वारः । सूत्रोक्तयुक्तिभिर्यद्भावानां श्रद्धानं क्रियते सम्यक्त्वे सा आराधना मुनीद्रैर्भणिता खलु इति संक्षेपान्वयद्वारः । तथाहि द्रव्यगुणपर्याया एतेषु भवतीति भावा जीवादयो नवपदार्था भवति । एतेषां किंचिन्निर्देशः क्रियते । तत्र चेतनालक्षणो जीवः तद्विलक्षण: पुद्गलधर्माधर्माकाशकालस्वरूपपंचविधो ऽजीवः, योगद्वारेण कर्मागमनमात्रवः,
सूत्र ( जिनेन्द्रदेव के वचन ) में कथित युक्ति के द्वारा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना जिनेन्द्र भगवान के सम्यग्दर्शन कहा है ॥ ४ ॥
गाथा में 'हु' शब्द निश्चय अर्थ तथा पादपूरण के लिए है। यद्यपि भाव, पदार्थ, तत्त्व ये एकार्थवाची शब्द हैं फिर भी शब्दार्थ की अपेक्षा कुछ अन्तर भी है। अतः संक्षेप से नव पदार्थ वा सात तत्त्वों का श्रद्धान करना, रुचि करना सम्यग्दर्शन है।
स्वकीय-स्वकीय गुण - पर्यायों में जो होते हैं, रहते हैं उन जीवादि को भाव कहते हैं ।
अर्थ्यते, गम्यते = जो ज्ञान के द्वारा जाने जाते हैं; ज्ञान के विषय हैं, ज्ञानगम्य हैं, वे अर्थ या पदार्थ कहलाते हैं । द्रवति, गच्छति, प्राप्नोति स्वकीय- स्वकीयद्रव्यगुणपर्यायान्, जो अपने-अपने गुणों एवं पर्यायों को प्राप्त होते हैं, प्रतिक्षण गुण- पर्यायों में स्वभाव विभाव रूप परिणमन करते हैं इसलिए वे द्रव्य कहलाते हैं । तत्त्व शब्द सामान्यभाव वाची है, जिसका अर्थ है- जिस-जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ व्यवस्थित हैं उनका उसी प्रकार से होना, परिणमन करना तत्त्व कहलाता है। अथवा जीव अजीव ये दो द्रव्य हैं और उनकी पर्यायें भाव वा तत्त्व कहलाती हैं।
मुख्यतया जीव, अजीव के भेद से द्रव्य दो प्रकार का है।
चेतना (ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग) जिसका लक्षण है उसको जीव कहते हैं। जिसमें चेतना नहीं है, अचेतन लक्षण है उसको अजीब कहते हैं। जिसमें चेतना नहीं है वह जीव से विपरीत लक्षण वाला अजीव है। अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाये जाते हैं उसको पुद्गल कहते हैं। इसके दो भेद हैं: अणु और स्कन्ध ।