________________
आराधनासार - १८
संसारसमुद्रसंपातकारणस्रक-चंदनवनितादिविषयसुखरागरसलंपटो महामिथ्यात्वाविष्टो जंतूत्करः किंतु स कुरस एव अनंतभवभ्रांतिसाधकत्वात, तेन सुरसेण वंदितं नमस्कृत स्तुतमनुभूतं सुरसेन वंदितं यतः सरागसम्यग्दृष्टयो जीवा संवेगास्तिक्यपरमानुकंपादान पूजाषडावश्यक क्रियामूलोत्तर गुणपरायणाः शास्त्रे व्यावर्णिताः। वीतरागसम्यग्दृष्टयस्तु प्रतिगुणस्थानमनंतगुणविशुद्धितोयप्रक्षालितपरिणामत्वात् केवलेन सकलढ़ियाकांडगर्भेण निर्विकल्पसमाधिना परमात्मानमनुभवंति । एवं सरागवीतरागयोः सम्यग्दृशोर्भेदो भवतीत्यभिप्रायः इति पंचमश्छायार्थः ।।
अनुभूत, सुरसेनवंदित सिद्ध भगवान होते हैं। क्योंकि शास्त्र में सराग सम्यग्दृष्टि जीव ही संवेग, आस्तिक्य, अनुकम्पा, दान, पूजा, षट् आवश्यक (प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समता, वंदना, स्तुति, कायोत्सर्ग) क्रिया, मूलगुण और उत्तरगुणपरायण वर्णित हुए हैं। परन्तु वीतराग सम्यग्दृष्टि प्रत्येक गुणस्थान में
अनन्तगुणी विशुद्धि वाले परिणाम रूपी जल के द्वारा अपने मन का प्रक्षालन करके सकल क्रियाकाण्ड जिसमें गर्भित है- ऐसी केवल निर्विकल्प समाधि के द्वारा परमात्मा का अनुभव करते हैं। इस प्रकार सराग सम्यग्दृष्टि और वीतराग सम्यग्दृष्टि में अन्तर होता है। अतः सुरसेनवंदित का अर्थ निर्विकल्प समाधि के द्वारा योगी जन जिनका अनुभव करते हैं, ऐसे सिद्ध होते हैं। यह इस गाथा का पाँचवाँ अर्थ है।
१. भूतकाल में लगे हुए कर्मों का पश्चात्ताप करना । २. भविष्यत्काल में होने वाले पापों का निराकरण करना। ३. मानसिक संतोष रखना। ४. पंचांग नमस्कार करके स्तोत्र पदभा। ५. चौबीस भगवान की स्तुति करना । ६. शरीर से ममत्व छोड़कर आत्मध्यान में लीन होना। ७. षट् आवश्यक, णमोकार मंत्र का जाप और शून्य घर आदि में प्रवेश करते समय निस्सहि और आसहि का उच्चारण
करना। ८. पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियरोध, षट् आवश्यक, स्नान नहीं करना, अचेलकत्व (वस्त्र नहीं रखन।). दंतौन
नहीं करना। एक बार भोजन करना । खड़े-खड़े भोजन करना । जमीन पर सोना। १. हिंसादि २१ को अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार इन चार से गुणा करने पर ८४ भेद होते हैं। इनको पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, दो, तीन, चार इन्द्रिय सैनी और असैनी से गुणा करने पर ८४० भेद होते हैं।
८४० भेद को आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापना और श्रद्धान शुद्धि के इन भेदों से गुणा करने पर ८४०० भेद होते हैं। आलोचना दोष के दस भेदों से गुणा करनेपर ८४००० भेद होते हैं। आलोचना के दस दोष इस प्रकार हैं१. आकंपित = अनुकम्पा उत्पन्न कराकर दोषों का कथन करना ।