________________
आराधनासार-१४
के आस्वादन की प्रेरणा की है क्योंकि अनादिकाल से यह प्राणी मोह से कलुषित ज्ञान के द्वारा शृंगारादि विभाव भावरूप रसों का आस्वादन कर रहा है, उनमें लीन होकर निजस्वरूप को भूला हुआ है। इसे स्वकीय परिणति का भान-ज्ञान नहीं हो रहा है। निज परिणति का भान शान्त रस में ही होता है। अत: शांत रस के अनुभव करने का प्रयत्न करना चाहिए।
मजंतु निर्भरममी सममेव लोकाः, आलोकमुच्छलति शांतरसे समस्ता: । आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणी भरेण,
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः।। अनादिकाल से जीव और पुद्गल का संयोग होने से यह आत्मा संसार में नृत्य कर रहा है, आठों रसों में लीन है, उनको उनसे हटाने के लिए आचार्यदेव कहते हैं
यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रम रूप चादर को निज शक्ति से दूरकर आप सर्वांग प्रकट हुआ है- जिसका शांतरस अलोकाकाश तक उछल रहा है। हे संसारी प्राणियो ! इस शांतरस में लीन हो जाओ। अपने आप में रमण करो।
ये नौ रस लोक में प्रसिद्ध हैं। इनमें अंतिम जो शांतरस है, वह शांत रस ही अनादि काल से प्रज्वलित पंचं प्रकार के संसार दुःख रूप महादावानल के विध्यापन (बुझाने) में समर्थ होने से अथवा परमानन्द का उत्पादक होने से सु-शोभन विशेषण से विशिष्ट है (सुरस है)। इसलिये संसार, शरीर और भोगों से परम वैराग्य को प्राप्त योगीश्वर 'सुरसेन' कहलाते हैं क्योंकि वे ही शांत रस में मग्न हैं।
उस सकल अध्यात्म कला के विलास के स्थानभूत शांत रस में मग्न योगी गणों से निर्विकल्प समाधि के द्वारा अनुभूत को सुरसेनवंदित कहते हैं।
शंका - वंदित का अर्थ अनुभूत कैसे हो सकता है?
उत्तर - “वदि अभिवादन-स्तुत्योः" इस सूत्र से वदि धातु अभिवादन में, नमस्कार में, स्तुति में, स्तवन में इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। स्तुति, वचन और मन से होती है।
जहाँ पर केवल वस्तुतत्त्व-एकनिष्ठ मन योग के द्वारा स्तुति की जाती है, वह स्तुति नामक अनुभूति पर्याय किसके द्वारा निषिद्ध की जाती है। अत: वेदित का अर्थ अनुभूति कैसे घटित नहीं होता? अवश्य ही होता है।
___ समाधि अवस्था में स्वीकृत शांत रस वाले मन के द्वारा अनुभूत है। (यह सुरसेनवंदित शब्द का अर्थ है।)