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म सम्पादकीय ॥ आचार्य देवता बारा विचित आराधनासार प्राकृत गाथाबद्ध एक आध्यात्मिक ग्रन्ध है। इसमें कुल ११५ गाधाएँ हैं जिनमें चतुर्विध आराधना - दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तपाराधना का सार वर्णित है। यह आराधनासार व्यवहार और परमार्थ रूप से दो प्रकार का
आराहणाइसारो तव दंसणणाणचरणसमवाओ।
सो दुम्भेओ उत्तो ववहारी चेव परमट्ठो ॥२॥ आचार्य देवसेन ने नयापेक्षा चतुर्विध आराधनाओं का वर्णन करने के बाद विस्तार से आराधक-समाधि (सल्लेखना) साधक का वर्णन किया है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशकार ने कोश के प्रथम भाग में 'आराधनासार के परिचय में आचार्य देवसेन का समय ईस्वी सन् ८९३-९४३ दर्शाया है। (पृष्ठ २८५)
तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा - भाग द्वितीय में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य ने विस्तृत ऊहापोह के बाद आचार्य देवसेन की सरस्वती-आराधना का काल वि.
सं.
(ई. सन् ९३३) से वि.सं. १०१२ (ई. सन् ९५५) स्थिर किया है। (पृष्ठ ३६९)
आचार्य देवसेन के कालनिर्णय हेतु अभी विशेष खोज अपेक्षित है।
आराधनासार पर पण्डिताचार्य रत्नकीर्तिदेव द्वारा विरचित सरल संस्कृत टीका और पण्डित आशाधरजी विरचित संस्कृत टिप्पण उपलब्ध हैं। ये टिप्पण बहुत ही संक्षिप्त हैं और श्री विनयचन्द्र के लिए लिखे गये हैं। इसका अन्तिम पुष्पिका वाक्य है
श्रीविनयचन्द्रार्थमित्याशाधर-विरचिताराथनासारविवृति: समाप्ता। टिप्पण के प्रारम्भ में पण्डितप्रवर का मंगलाचरण इस प्रकार है
प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाथरः स्फुटम् ।
आराधनासारगूढ - पदार्थान्कथयाम्यहम्।। प्रस्तुतग्रन्ध सर्वप्रथम पं. रत्नकीर्तिदेव की संस्कृत टीका सहित माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हुआ था। उसके बाद पं. गजाधरलालजी के हिन्दी अनुवाद के साथ जैन