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आराधनासार-२१२
परं तदा शोधयंत अस्थि हु जड़ पययणविरुद्ध हु स्फुटं यदि चेत् प्रवचनविरुद्ध जिनागमविरुद्धं किंचिन्मया प्रत्यपादि तदा शोधयंतु । ये भाव श्रुतविरहिताः केवलं द्रन्य श्रुतावलंबिनस्तेषां पुनरिहाराधनासारशोधने नाधिकारः । ये परमब्रह्माराधनातत्परास्त एवात्राधिकारिण इत्यर्थः ||११५।। इति श्रीदेवसेनाचार्यविरचित आराधनासार: समाप्तः॥
॥ टीकाकारस्य प्रशस्तिः॥ अश्वसेनमुनीशोऽभूत् पारदृश्वा श्रुतांबुधेः।
पूर्णचंद्रायितं येन स्याद्वादविपुलांबरे॥१॥ श्रीमाथुरान्वयमहोदधिपूर्णचंद्रो, निधूतमोहतिमिरप्रसरो मुनींद्रः।
तत्पट्टमंडनमभूत् सदनंतकीर्ति, ानाग्निदग्धकुसुमेषुरनंतकीर्तिः ।।२।। काष्ठासंघे भुवनविदिते क्षेमकीर्तिस्तपस्वी, लीलाध्यानप्रसृमरमहामोहदावानलाभः । आसीदासीकृतरतिपतिर्भूपतिश्रेणिवेणी, प्रत्यग्रतवत्सहचरपदद्वंदपद्मस्ततोपि॥३।।
देवसेन आचार्य कहते हैं - इस आराधना ग्रन्थ में यदि कोई प्रवचनविरुद्ध कथन किया हो तो भाव श्रुतकेवली इसका संशोधन करें, ट्रव्य श्रुतावलम्बी नहीं। क्योंकि जो भावश्रुतरहित केवल द्रव्यश्रुत का अवलम्बन लेने वाले हैं उनको इस आराधनासार की शोधना करने का अधिकार नहीं है। जो परम ब्रह्म की आराधना में तत्पर है वही इस आराधनासार की शोधना का अधिकारी है। अर्थात् जो स्वयं आराधना के सार का अनुभव कर रहा है, जिसने मानसिक परिणति में उसे उतारा है, उसका रसास्वादन किया है वही 'आराधनासार' की शुद्धि कर सकते हैं ।।११५॥
।। इतिश्री देवसेनाचार्यविरचित - आराधनासारः।।
* टीकाकार की प्रशस्ति * श्रुतसागर के पारगामी अश्वसेन नामक मुनिराज हुए थे। वे स्याद्वादरूपी विपुल आकाश में पूर्णचन्द्रमा के समान आचरण करते थे अर्थात् स्याद्वाद का प्रकाश करने के लिए चन्द्रमा के समान थे ॥१॥
श्री माथुर संघ रूपी समुद्र के पूर्ण चन्द्रमा, मोहरूपी अन्धकार के प्रसार के नाशक, समीचीन अनन्त कीर्ति के धारक, ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा जलाया है काम को जिन्होंने ऐसे तथा अश्वसेन आचार्य के पट्ट पर स्थित अनन्तकीर्ति नाम के आचार्य हुए थे ।।२।।
लोकविश्रुत काष्ठा संघ में क्षेमकीर्ति नाम के तपस्वी हुए थे। ध्यान मात्र से उत्पन्न होने वाले महामोहरूपी दावानल के लिए जो जलसमूह थे, जिन्होंने काम को अपना दास बना लिया था, जिनके चरण-कमलों में बड़े-बड़े राजा लोग आकर नमस्कार करते थे, उनके विशाल, प्राप्त उदय (विख्यात) पट्ट