________________
आराधनासार - २०७
ण झायइ अप्पा यावत्कालं चैतन्यात्मानं न ध्यायति भेदज्ञानेन कायादिभ्यः पृथगवबुध्य स्वसंवेदनेन यावन्न संवेदयति तावत्तस्य प्राणिनः क्षपकस्य मोक्षो नास्ति । को नाम एवमाचष्टे । जिणो भणइ निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारी केवली जिनः भणति कथयति । उक्तं च
पदमिदं ननु कर्म दुरासदं सहजबोधकला सुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाबलात्कलयितुं यततां सततं जगत् ॥ यो न वेत्ति परं देहे देवगानमनपरायम् ।
लभते न स निर्वाणं तप्वापि परमं तपः ।। एवंविधं विदधाना भव्यात्मानोऽवश्यं मुक्तिभाजो भवंतीति निगदति
चइऊण सव्वसंग लिंगं धरिऊण जिणवरिंदाणं। अप्पाणं झाऊणं भविया सिझंति णियमेण ।।११२ ।।
त्यक्त्वा सर्वसंग लिंग धृत्वा जिनवरेंद्राणाम् ।
आत्मानं ध्यात्वा भव्याः सिध्यति नियमेन ॥११२ ॥ सिझंति सिध्यंति सिद्धि साधयति। के। भविया भव्यात्मानः। कथं सिध्यति । णियमेण निश्चयेन। किंकृत्वा। चइऊण सव्वसंग संगः परिग्रहो बाह्याभ्यंतररूपः । तत्र बाह्यो दशविधः। यदुक्तम्
करता है, भेदविज्ञान के द्वारा अपनी आत्मा को शरीर से पृथक् (भिन्न) जानकर संवेदन ज्ञान के द्वारा अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता है, तब तक उस क्षपक को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा सारे जगत् को साक्षात् जानने-देखने वाले भगवान ने कहा है। कहा भी है
निश्चय से कर्मों से दुरासद यह निजपद (आत्मपद) सहज बोधकला से सुलभ है, अर्थात् ज्ञान के द्वारा यह आत्मस्वभाव सहज प्राप्त हो सकता है अतः यह सारा जगत् स्वकीय बोधकला (स्वसंवेदन ज्ञान रूपी कला) के बल से इस स्वकीय पद (स्वरूप) को जानने का प्रयत्न करे ; अन्यथा मुक्ति की प्राप्ति नहीं होगी। पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है
जो प्राणी स्वकीय शरीर में अव्यय (अविनाशी) आत्मा रूपी परम देव को नहीं जानता है, अपने शरीर में अपनी आत्मा का अवलोकन नहीं करता है वह घोर तपश्चरण करके भी निर्वाण पद को प्राप्त नहीं कर सकता है ||१११॥
ऐसी अवस्था को धारण करने वाला क्षपक ही मोक्षभागी होता है, सो कहते हैं
सर्व परिग्रह का त्याग कर, जिनेन्द्र के लिंग को धारण कर और स्वकीय आत्मा का ध्यान करके ही नियम से (निश्चय से) भव्यात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है ॥११२ ।।