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आराधनासार-२०५
चउध्विहाराहणाहु हु स्फुटं येषां क्षपकानां चतुर्विधा आराधना अधन्या भवंति। तथाहि-ये खलु मनश्चांचल्यात्सहजशुद्धचिदानंदात्मनि स्वात्मनि स्थितिमल्पतरामासादयंति व्यवहारपरमार्थरूपेषु दर्शनज्ञानचारित्रतप:स्वपि मनोवचनकायसामर्थ्यरहितत्वात्सम्यगाराधनां नाचरति तेपि जघन्या आराधकास्त्रिचतुरेषु भवांतरेषु अतीतेषु मोक्षमक्षयसुखमुपलभते अतएवाराधनैव मोक्षं करोतीति भावार्थः ।।१०९॥
व्यवहारनिश्चयाराधनोपयोगभाजः शुभकर्मोत्पादितस्वरैश्वर्यादिफलमनुभूय कमनीयमुक्तिकामुका भवंतीत्याह
उत्तमदेवमणुस्से मुलताई अगोनपाई भुना। आराहणउवजुत्ता भविया सिज्झंति झाणट्ठा ॥११०॥
उत्तमदेवमानुषेषु सुखान्यनुपमानि भुक्त्वा ।
आराधनोपयुक्ता भव्याः सिध्यति ध्यानस्थाः ।।५१०॥ सिझंति सिध्यति । के । भविया भव्याः । किं कृत्वा । भुत्तूण भुक्त्वा अनुभूय | कानि । सुखानि । कथंभूतानि सुखानि । अणोवमाई अनुपमानि उपमारहितानि । यदुक्तम्
हृषीकजमनातंकं दीर्घकालोपलालितम्।
नाके नाकोकसां सौख्यं नाके नाकोकसामिव ।। जो क्षपक मानसिक चंवलता के कारण सहज शुद्ध चिदानन्द स्वरूप अपनी आत्मा में स्थिर रहने में समर्थ नहीं हैं, बहुत कम काल तक स्थिर रह पाते हैं, व्यवहार रत्नत्रय और परमार्थ रत्नत्रय या दर्शन ज्ञान, चारित्र
और तपरूप आराधना में मन, वचन और काय का सामर्थ्य नहीं होने से सम्यक् प्रकार से आराधना की आराधना नहीं कर सकते, उनके जघन्य आराधना होती है। उस जघन्य आराधना के आराधक पुरुष तीन-चार भव में अक्षय सुख के आस्पद मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इसलिए आराधना ही मोक्ष का कारण है, ऐसा समझना चाहिए ।।१०१॥
अब व्यवहार और निश्चय आराधना में उपयोग लगाने वाले क्षपक शुभ कर्मों के कारण उत्पन्न (प्राप्त) स्वर्ग के ऐश्वर्य आदि फल का अनुभव करके कमनीय (सुन्दर) मुक्ति रूपी स्त्री के बल्लभ (पति) होते हैं, सो कहते हैं
आराधना में उपयुक्त भव्य पुरुष उत्तम देव और मनुष्य सम्बन्धी अनुपम सुखों को भोगकर ध्यानस्थ होकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं ।।११०।।
आराधक स्वर्ग में अनुपम सुखों का अनुभव करता है, स्वर्ग के सुख उपमा रहित हैं इसलिए अनुपम हैं। पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है
"देवों को स्वर्ग में जो इन्द्रियजन्य सुख है वह दीर्घकाल तक रहने वाला है और रोगों की बाधा रहित है। स्वर्ग के देवों का सुख स्वर्ग के देवी के सुख सभान है, उसकी उपमा का संसार में दूसरा सुख नहीं है इसलिए वह अनुपम है।"