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आदेशमासाद्य गुरोः परात्मप्रबोधनाय श्रुतपाठचंचुः । अराधनाया मुनिरत्नकीर्तिष्टीकामिमां स्पष्टतमां व्यधत्त ॥ ६ ॥ इति प्रशस्तिः ।
इति पंडिताचार्य श्रीरत्नकीर्तिदेवविरचिताराधनासारटीका समाप्ता ।
आदेशमिति गुरु की आज्ञा पाकर आगम के स्वाध्याय में निपुण रत्नकीर्ति मुनि ने परात्मा का प्रबोध कराने के लिये आराधनासार की यह अत्यन्त स्पष्ट टीका रची है ।६ ॥
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इस प्रकार पण्डिताचार्य श्री रत्नकीर्तिदेवद्वारा विरचित आराधनासार की टीका समाप्त हुई।
टीकाकार ने स्वयं यह श्लोक लिखा है।
ये रत्नकीर्तिदेव काष्ठासंघ के हैं परन्तु 'आराधनासार' देवसेनाचार्य की कृति है जो मूलसंघ की परम्परा में थे।
* आराधनासार का प्रतिपाद्य
एक सौ पन्द्रह गाथाओं में रचित इस ग्रन्थ में देवसेनाचार्य ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपरूप चार आराधनाओं का कथन करके अन्त में आराधनाओं के फलस्वरूप सल्लेखना का उल्लेख किया है। क्योंकि आराधना एवं व्रतों का फल अन्त में समाधिमरण करना है। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है
अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।
केवली भगवान ने तपश्चरण का फल अन्त में समाधिमरण कहा है इसलिए समाधिमरण का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए।
पंडित आशाधर जी ने भी सागार धर्मामृत में लिखा है
सहगामिकृतं तेन धर्मसर्वस्वमात्मनः ।
समाधिमरणं येन भवविध्वंसि साधितं ॥
जिसने संसारनाशक समाधिमरण प्राप्त कर लिया उसने अपने धर्मरूप वृक्ष के फल को सहगामी कर लिया। समाधिमरण का महत्त्व वचनातीत है।
समन्तभद्राचार्य, उमास्वामी आचार्य, अमृतचन्द्राचार्य, सोमदेवाचार्य आदि महापुरुषों ने श्रावक के १२ व्रतों का कथन करके उन व्रतों का फल अन्त में सल्लेखना (समाधिमरण ) कहा है । परन्तु कुन्द