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आराधनासार - १७३
व्यापारः स्वस्वविषयेषु प्रवर्तन करण-व्यापार: नि:शेषश्चासौ करणव्यापारश्च निःशेषकरणव्यापारस्तस्मिन् नि:शेषकरणव्यापारे नष्टे सति परं करणन्यापार बहिरात्मा धारयितुं न शक्नोति किंतु तत्रैव रमते। यदुक्तं
न तदस्तींद्रियार्थेषु यत्क्षेमंकरमात्मनः ।
तथापि रमते बलस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ।। ततश्च हृषीकेषु विजितेष्ववश्यं परात्मतत्त्वमाविर्भवति । यदुक्तम्
संहृतेषु स्वमनोगजेषु यद्भाति तत्त्वममलात्मनः परम् ।
तद्गतं परमनिस्तरंगतामग्निरुग्र इह जन्मकानने ॥ ततश्च मनसि विनष्टे हृषीगणे प्रहतग्रसरे स्वस्वभावे विस्फुरिते आत्मैव परमात्मा भवतीति समुदायार्थः ।।८५॥ शून्यं ध्यानं विदधानस्य धातुः सकलकर्मविप्रमोक्षो भवतीत्याह
इयएरिसम्मि सुण्णे झाणे झाणिस्स बट्टमाणस्स । चिरबद्धाण विणासो हवड़ सकम्माण सव्वाणं॥८६॥
इत्येतादृशे शून्ये ध्याने ध्यानिनो वर्तमानस्य । चिरबद्धानां विनाशो भवति स्वकर्मणां सर्वेषाम् ।।८६ ।।
जाता है। बहिरात्मा इन्द्रियव्यापार को रोकने में समर्थ नहीं है। वह तो इन्द्रियविषयों में ही रमण करता है। सो ही पूज्यपाद स्वामी ने समाधिशतक में कहा है
"इन्द्रियजन्य विषयों में आत्मा का कुछ भी कल्याण नहीं है फिर भी बाल (मूखं. बहिरात्मा) अज्ञान भाव से उन्हीं पंचेन्द्रिय विषयों में रमण करते हैं।'
इसलिए पंचेन्द्रिय-विषयों को जीत लेने पर अवश्य ही परमात्म तवं का आविर्भाव होता है। सो ही कहा है
स्वकीय मन रूपी हाथी के वश हो जाने पर निर्मल परम आत्म तत्त्व (स्वरूप) का प्रादुर्भाव होता है और परम आत्मतत्त्वगत परम निस्तरंग (निश्चल) 3 अनि ही इस संसार वा जन्मवन को जलाती है, संसार का नाश करती है। अर्थात् मन को वश में करने से संसार का नाश होता है।
मनोव्यापार के नष्ट हो जाने पर इन्द्रियों का प्रसार रुक जाता है। इन्द्रियों का प्रसार नष्ट हो जाने पर स्वस्वभाव स्फुरायमान होता है और स्वस्वभाव के स्फुरायमान हो जाने पर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है, ऐसा समझना चाहिए ।।८.५।।
शून्य ध्यान को धारण करने वाले धातु (आत्मा) के सकल कर्मों का नाश रूप मोक्ष होता है, सो कहते हैं___ इस प्रकार शून्यध्यान में स्थित योगी के चिर काल के बँधे हुए सर्व स्वकर्मों का विनाश हो जाता है |॥८६॥