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आराधनासार - १६१
यावत्साकल्याभिनिवेशो योगिनस्तावच्छून्यं ध्यान नास्तीत्यावेदयति
जाम वियप्पो कोई जायइ जोइस्स झाणजुत्तस्स । ताम ण सुण्णं झाणं चिंता वा भावणा अहवा ।।८३||
याचद्विकल्पः कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य ।
तावन्न शून्य ध्यानं चिता वा भावना अथवा ।।८३ ।। जोइम्स योगिनः संवृद्रियस्य क्षपकस्य जाम बियप्पो कोई जायइ यावत्काल कोपि कश्चिदपि विकल्पः अहं सुखी अहं दुःखीत्यादि-मप: आयते उत्पद्यते। कथंभूतस्य योगिनः। झाणजुत्तस्स ध्यानयुक्तस्य निर्विकल्पसमाधिनिष्ठस्य। कथं विकलपाविर्भावः? पूर्वविभ्रमसंस्कारादिति । यदुक्तम्
जाननप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि।
पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रांतिं भूयोपि गच्छति ।। विकल्पावतारश्चद्योगिनस्तहि किं दृषणमित्याशंक्याह । ताव ण सुण्णं झाणं तावत्कालं शून्य संकल्पातीतं ध्यान नास्ति । तत्किमस्तीत्वाशक्याहै। चिंता वा भावणा अहवा तस्य परमात्मनश्चिन्ता अनंतज्ञानादिगुणस्मरणलक्षणा अथवा तस्मिन्नेव टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावे भावना । न पुनः शून्यं ध्यानं । तथाहि । आत्मस्वभावलंबिनो योगिनः संकल्पविकल्प विदलयन् शुद्धनय एबोदेति । यदुक्तम्
जब तक सारे अभिनिशों से योगी का हृदय शून्य नहीं होता है, तब तक ध्यान नहीं होता, ऐसा कहते हैं
ध्यानस्थ योगी के हृदय में जब तक कोई भी संकल्प-विकल्प रहते हैं, तब तक शून्य ध्यान नहीं होता, केवल ध्यान की चिन्ता और भावना होती है।८३ ।।
ध्यानत. पंचेन्द्रिय विषय से विरक्त क्षपथः के हृदय में जब नक "मैं सुख है, मैं द:खी हैं, मैं ध्याता हूँ, यह ध्येय है, यह ध्यान है", आदि कुछ भी (किंचित् मात्र भी) विकल्प रहता है तब तक ध्यान नहीं होता। शंका - जो निर्विकल्प समाधि का इच्छुक है, ध्यान का अभ्यास करने वाला है, उसके विकल्यों का प्रादुर्भाव कैसे हो सकता है? उत्तर - पूर्व विभ्रम के संस्कार से विकल्पों का प्रादुर्भाव होता है सो ही पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है- "आत्मतत्त्व को जानते हुए भी तथा शुद्धात्मा की भावना करते हुए भी अनादिकालीन चिभ्रमों के संस्कार से बार-बार भ्रान्ति उत्पन्न होती है, संकल्प-विकल्या उत्पन्न होते हैं।"
शंका - योगी के मन में यदि विकल्प होते हैं तो उसमें क्या दोष है? उत्तर-जब तक योगी के हृदय में विकल्पों का प्रादुर्भाव होता है तब तक संकल्पातीत शून्य ध्यान नहीं होता है। शंका - फिर क्या होता है? क्या उस क्षपक का ध्यान अभ्यास निल है? उत्तर - क्षपक का ध्यान का अभ्यास निष्कान नहीं है, इसके निर्विकल्प ध्यान नहीं है। परन्तु परमात्मा के चिन्तन से ध्यान की चिन्ता होती है और परमात्मा के अनन्त ज्ञानादि गुणों के स्मरण रूप उसी टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव आत्मा के स्वभाव की चिन्तन रूप भावना होती है, शून्य ध्यान नहीं होता। क्योंकि आत्म-स्वभाव का अवलम्बन लेने वाले योगियों के संकरप-विकल्प का नाश होता है तब शुद्ध नथ का तय होता है। सो ही ऋहा है