________________
आराधनासार - १६७
अतः आत्मा दर्शनज्ञानोपयोगमयोऽवगंतव्यः तस्यैव शुद्धबुद्धस्वभावस्यात्मनः स्वात्मनि या स्थितिस्तच्चारित्रमिति । अथवा
ववहारेणुवदिस्सदि गाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं ।
ण वि णाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।। अनुच
सम्यक्सुखबोधदृशां त्रितयमखंडं परात्मनो रूपम् ।
तत्त्रितयतत्परो यः स एव तल्लब्धिकृतकृत्यः ।। संसारव्यवहारल्यापारोल्पादकै; रागद्वेषमोहशृंगारादिभिरवलंबन: सालंबो भविष्यति आत्मेत्याशक्याह अवसेसालंबणेहि परिमुक्को अवशेषाणि समस्तानि थान्यालंबनानि अपध्यानादीति तैः सर्वप्रकारेण मुक्तो रहितः उत्तो स तेण सुण्णो स आत्मा तेनैव हेतुना शून्यः उक्तः प्रतिपादितः। ततश्च समस्तेंद्रियविषयकषायविषये शून्य; चिदानंदैकसद्भाचे स्वरूपे योऽशून्यः स सर्वप्रकारेणोपादेय इति भावार्थः ।।८।। को छोड़ देती है तो जड़पने (अचेतनपने) को प्राप्त हो जाती है क्योंकि व्यापक ज्ञान-दर्शन के बिना व्याप्य आत्मा भी अंत को प्राप्त हो जाता है। इसलिए आत्मा ज्ञानदर्शनमय नियत है; ज्ञान, दर्शन से कभी शून्य नहीं होता है।
इसलिए आत्मा दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग मय है, ऐसा जानना चाहिए। उस शुद्ध (रागादि रहित), बुद्ध (केवलज्ञान) स्वरूप आत्मा का अपने आत्मा में स्थिर हो जाना ही चारित्र है। अथवासमयसार में कहा है
“व्यवहार नयसे ज्ञानी आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र कहा जाता है परन्तु निश्चय से आत्मा के न दर्शन है, न ज्ञान है और न चारित्र है; केवल शुद्ध ज्ञायक भाव रूप ही आत्मा है।" और भी कहा है
सम्यक् सुख, ज्ञान और दर्शन इन तीनों की अखण्डता (एकता अभिन्नता) ही परमात्मा का स्वरूप है। जो रत्नत्रयमय आत्मा में तत्पर होता है वही भव्यात्मा उस रत्नत्रय की प्राप्ति से कृतकृत्य हो जाता है।
संसार-व्यवहार के, व्यापार के उत्पादक राग-द्वेष, मोह, श्रृंगार आदि के अवलम्बन से आत्मा सावलम्ब होता है, ऐसा पूछनेपर आचार्य कहते हैं कि ये राग-द्वेषादि अवलम्बन ही आत्मा के घातक हैं इसलिए इन सारे आर्त, रौद्र ध्यान, अपध्यान रूप अवलम्बनों से मुक्त हो जाना (ज्ञानधारा का विभावभावों से रहित हो जाना) ही आत्मा शून्य कहलाता है। अर्थात् ज्ञान का रागद्वेष परिणति से रहित होना शून्यता कहलाती है इसलिए जो परिणाम समस्त इन्द्रियजन्य विषय और कषायों से शून्य है और चिदानन्द एक सद्भाव रूप स्वकीय स्वरूप से अशून्य है, यही अवस्था सर्व प्रकार से उपादेय है; ऐसा समझना चाहिए।।८१॥