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आराधनासार - १५०
अमुमेवार्थं पुनरपि दृढीकरोति
विसयालंबणरहिओ णाणसहावेण भाविओ संतो। कीलइ अप्पसहावे तक्काले मोक्खसुक्खे सो॥६७ ।।
विषयालंबनरहितं ज्ञानस्वभावेन भावितं सत्।
क्रीडति आत्मस्वभावे तत्काले मोक्षसौख्ये तत् ।।६७ ।। अत्र प्राकृतलक्षणे पुन्नपुंसकलिंगयोः कुत्रचिद्रूपभेदो नास्ति तथा च द्विवचनबहुवचनभेदो नास्तीत्यादि सर्वत्र यथासंभवं विचारणीयं । विसयालंबणरहिओ विषयालबनरहितं अनादिकालसंसेव्यमानविषयाधारवर्जितं तत् मनः णाणसहावेण ज्ञानस्वभावेन ज्ञानवासनया भाविओ संतो भावितं वासितं सत् तक्काले तत्काले तदानीं अप्पसहावे आत्मस्वभावे शुद्धपरमात्मस्वरूपे सुक्खे मोक्षसुखे भावमोक्षलक्षणसमुद्भूतसुखे कीलइ क्रीडति क्रीडमानस्तिष्ठतीति गाथार्थः ।।६७|| मन:प्रसरणनिवारणफलं दर्शयित्वा संप्रति तद्रूपवृक्षखंडनाय शिष्योपदेशं ददति
णिल्लूरह मणवच्छो खंडह साहाउ रायदोसा जे। अहलो करेह पच्छा मा सिंचह मोहसलिलेण ॥६८॥
निक्षूयत मनोवृक्ष खंडयत शाखे रागद्वेषौ यौ। अफलं कुरुध्वं पश्चात् मा सिंचत मोहसलिलेन ।।६८ ॥
इसी अर्ध को फिर भी दृढ करते हैं
ज्ञान स्वभाव से भावित मन विषयों के अवलम्बन से रहित होकर आत्मस्वभाव में क्रीड़ा करता है और तत्काल (शीघ्र ही) वह आत्मा मोक्षसुख को प्राप्त हो जाता है।॥६७।।
प्राकृत व्याकरण में पुलिंग और नपुंसक लिंग में कहीं रूपभेद नहीं भी होता है। उसी प्रकार प्राकृत व्याकरण में दो वचन और बहुवचन का भेद भी नहीं है। ऐसा सर्वत्र यथासंभव विचारणीय है।
अनादि काल से सेवित, विषय आधारसे रहित (विषयानलम्बन से रहित) हुआ मन ज्ञान स्वभाव से भावित होकर शीघ्र ही शुद्ध परमात्म स्वभाव रूप भावमोक्ष लक्षण से समुत्पन्न मोक्षसुख में क्रीड़ा करता है, रमण करता है। अर्थात् निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है ।।६७।।
मन के प्रसार के निवारण के फल को दिखाकर इस समय मन रूपी वृक्ष का खण्डन करने के लिए आचार्य शिष्य को उपदेश देते हैं
हे क्षपक ! मन रूपी वृक्ष को निर्मूल करो और रागद्वेष रूप शाखा का खण्डन करो और उस को फल रहित करो तथा मोह रूप जल से सिंचन मत करो।।६८।।