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आराधनासार- १४१
ननु मनोनृपप्रेरितायामवश्यायामिन्द्रियसेनायां प्रसरत्या क्षपकेण किं कर्तव्यमित्यावेदयति
इंदियसेणा पसरइ मणणरवइपेरिया ण संदेहो। तम्हा मणसंजमणं खवएण य हवदि कायव्वं ॥५८॥
इंद्रियसेना प्रसरति मनोनरपतिप्रेरिता न संदेहः ।
तस्मान्मनः संयमनं क्षपकेण च भवति कर्तव्यम् ।।५८ ।। इंदियसेणा इंद्रियाणि हृषीकाणि तान्येव सेना चमू इंद्रियसेना मण-णरवइपेरिया मनोनरपतिप्रेरिता मनश्चित्तं तदेव नरपतिः राजा तेन प्रेरिता आदिष्टा सती पसरइ प्रसरं करोति ण संदेहो संदेहः संशयो न, यस्मादित्यध्याहारः। यत्तदोर्नित्यसंबंध इत्यभिधानात् तम्हा तस्मात् कारणात् मण-संजमणं मनः संयमन मनश्चित्तं तस्य संकोचनं स्पर्शादिविषयेभ्यो व्यावृत्य सहजशुद्धचिदानंदैकस्वभावसकलविकल्पविकलात्मपरमात्मत्त्वैकाग्रचिंतायां स्थापनमित्यर्थः। खवयेण क्षपकेन कर्मक्षपणशीलेन पुरुषेण कायब्वं कर्तव्यं करणीयं च भवति । तथाहि । यथा सैन्यस्य राजा नायको भवति तथा इंद्रियाणां मनो नायक: नायकेनैवादिष्टं सैन्यं प्रसरति न हि नायकमंतरेण क्वचित्कथंचित्तत्सामर्थ्य
अब ‘मन पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए' यह कथन करते हैं।
मन रूपी राजा के द्वारा प्रेरित इन्द्रियसेना स्व-स्व विषयों में प्रवृत्ति कर रही है, फैल रही है; उसको रोकने के लिए क्षपक को क्या करना चाहिए. ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं
__ मनरूपी राजा के द्वारा प्रेरित इन्द्रिय रूपी सेना अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति करती है। इसमें संशय नहीं है। इसलिए क्षपक को मन का संयम करना चाहिए ।।५८ ।।
इस गाथा में रूपक अलंकार है। इसमें मन को राजा की उपमा दी है और इन्द्रियों को उसकी सेना बताया है। जिस प्रकार राजा के आदेश से सेना कार्य करती है, उसी प्रकार मनरूपी राजा के द्वारा प्रेरित हुई यह पाँचों इन्द्रिय रूपी सेना स्व-स्व विषय में प्रवृत्ति करती है, आत्मा के भावों का मथन करती है, विकारी करती है। इसमें संशय नहीं है। इसलिए क्षपक को मन को संयमित करना चाहिए। स्पर्शनादि विषयों में जाते हुए मन को उन विषयों से हटाकर सहज शुद्ध, चिदानन्द स्वभाव, सकल विकल्प-जालों से रहित परमात्म तत्त्व-चिन्तन रूप एकाग्र चिंता' में मन को स्थिर करना चाहिए। अर्थात् विषय वासना से मन को हटाकर (आर्त्त, रौद्र ध्यान से रहित होकर) शुद्धात्मतत्त्व वा पंचमरमेष्ठी के गुण-चिन्तन में लगाना चाहिए।
कर्मों का क्षपण करने में तत्पर मानव को क्षपक कहते हैं।
हे क्षपक ! सेना का नायक जैसे राजा होता है वैसे ही इन्द्रिय रूपी सेना का नायक मन है। जैसे अपने नायक राजा के द्वारा प्रेरित होकर सेना युद्ध में गमन करती है, नायक के बिना कुछ भी करने में समर्थ