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आराधनासार- १०५
जजल्प। भो महीमहेंद्र किमिति मत्तनयो हतवृत्ती विहितौ । राजा जगाद । तवात्मजौ निरक्षरशिरोमणी अततःसभं कामप्यभीष्यां न लभेते । यदुक्तं
विद्वज्जनानां खलु मंडलीषु मूर्खो मनुष्यो लभते न शोभाम् । श्रेणीषु किं नाम सितच्छदानां काको वराकः श्रियमातनोति ॥
अथ तनयावाहूय ब्राह्मणी प्रोवाच । रे मयौवनवनच्छेदे कुठारौ नृपसदसि प्राप्तमानखंडनयोर्युवयोः मरणमेव शरणं । यदुक्तं
मा जीवन् यः परावज्ञादुःखदग्धोपि जीवति । तस्याजननिरेवास्तु जननी क्लेशकारिणः ।।
अथ सुतावूचतुः । मातर्जहीहि कोपं देहि शिक्षामतः परं कथमावयोः शास्त्रपाठलाभः । साह । राजगृहे नगरे भावत्कः पितृव्यो विदितव्याकरणोऽधीततर्कशास्त्रो न्यायशास्त्रपाथोधिपारीणः परवादिशिर: करोटीकुट्टक: सूर्यमित्र: सांप्रतं निःशेषमनीषिशिरोमणिर्वरीवर्ति तदितस्त्वरितं गत्वा तमाराध्य विद्याभ्यासं युवामाचरतां । तौ च तन्मातृवचनं निशम्य राजगृहनगरं त्वरितमगमतां । तत्र सूर्यमित्रसदनं सद्यः प्रविश्य उपाध्यायं च नमस्कृत्य
पुरोहित - भार्या की बात सुनकर राजा ने अत्यन्त खेद खिन्न होते हुए कहा- "हे माता ! तेरे पुत्र निरक्षर शिरोमणि हैं ( अज्ञानी हैं) अतः राजसभा में बैठने योग्य नहीं हैं तथा किसी भी पद के योग्य नहीं हैं।" सो ही कहा है
"विद्वानों की सभा में मूर्ख मानव शोभा को प्राप्त नहीं होता। हंसों की श्रेणी में क्या बेचारा कौआ शोभा को प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं ।" पुत्रों को बुलाकर कहा- “हे मेरे यौवन को छेदने के लिए कुठार! राजा की सभा में मानखण्ड को प्राप्त हुए तुम दोनों के मरण ही शरण है अर्थात् अपमान से जीवित रहने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है। कहा भी है- "दूसरों के तिरस्कार रूपी अग्नि से (दूसरे के अपमानजनक वचन सुनकर ) जलकर जीवित रहने की अपेक्षा तो जननी को (माता को ) क्लेशकारी पुत्रों का मरण ही अच्छा है ।
दोनों पुत्रों ने कहा- "माता! कोप छोड़ो, हम दोनों को शिक्षा दो कि हम दोनों को शास्त्रपठन का लाभ कैसे हो ? हम ज्ञानी कैसे बनें ?"
पुत्रों की बात सुनकर माता ने कहा- " हे पुत्रो ! राजगृह नगर में व्याकरण, तर्कशास्त्र और न्यायशास्त्र रूपी सागर का पारगामी, परवादियों की शिर रूपी करोटी को कूटने वाला अर्थात् परवादियों को वाद-विवाद में जीतने वाला और सम्पूर्ण भूमण्डल के विद्वानों में शिरोमणि सूर्यमित्र नामक तुम्हारा चाचा रहता है। तुम दोनों यहाँ से शीघ्र ही उसके पास जाकर, उसके चरणों की आराधना कर विद्याभ्यास करो । माता के वचन सुनकर वे दोनों शीघ्र ही राजगृहनगर में आये और सूर्यमित्र के घर में प्रवेश कर तथा उपाध्याय को नमस्कार कर उसके सामने भूमि पर बैठ गये । सूर्यमित्र उपाध्याय ने उस अपूर्व युगल