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संसारसुख से विरक्त, वैराग्य भाव को प्राप्त, परम उपशम भाव युक्त और अनेक प्रकार के तप से जिसने शरीर को संतप्त किया है वही वास्तव में आराधना (समाधिमरण) का आराधक होता है।
जिनके हृदय में संसार-सुखों से वास्तविक विरक्ति है वे ही वास्तव में 'अर्ह' आराधना के योग्य हैं, क्योंकि संसार-सुखों से विरक्ति है तो युवा अवस्था में भी संन्यास के योग्य है। यदि विरक्ति नहीं है तो आराधक की सारी योग्यताएँ निष्फल हैं।
जिनका हृदय संसार-सुखों से विरक्त होकर वैराग्य को प्राप्त हुआ है तथा उपशम भाव से युक्त है उसके ही लिंग चिह्न, क्षमायाचना, समाधि, अनियत विहार, निर्दोष आलोचना आदि सारे गुण प्रकट होते हैं। यदि संसार-सुख-विरक्ति, वैराग्य और उपशम भाव नहीं हैं तो ४० अधिकारों में से एक भी अधिकार का पालन नहीं होता। इसलिए सर्वप्रथम संसार-सुख-विरक्ति, वैराग्य और उपशम भाव (कषायों की मन्दता) होना आवश्यक है।
____ जो मानव इन गुणों से युक्त है. अनेक प्रकार के तपश्चरण के द्वारा अपने शरीर को तपाता है, वही इन्द्रियविजयी, उपसर्ग-विजयी, परीषहजयी और मनोविजयी बन सकता है।
जो संसार-सुखों का इच्छुक है, जिसके अंतरंग को वैराग्य भाव ने स्पर्श नहीं किया है; वह इन्द्रिय विजयी, कषायविजयी, उपसर्ग-परीषहजयी नहीं हो सकता, बाह्य में पंचेन्द्रिय-विषयों का त्याग करके भी अन्तरंग में विषयवासनाओं की अग्नि से उसका हृदय सन्तप्त रहता है। भूख-प्यास को सहन करके भी वह अन्तरंग में स्वसंवेदन रूप सुखामृत का पान कर सुख का अनुभव नहीं कर सकता। बाह्य में विविध तपश्चरण के द्वारा शरीर को तपाकर के, खपाकर के अन्तरंग में आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता। इसलिए सर्वप्रथम संसार-सुखों का विरेचन कर वैराग्य और उपशम भाव को प्राप्त होना जरूरी है।
यद्यपि निश्चय नय से आत्मा का गुरु आत्मा ही है तथापि व्यवहार नय से निर्यापक की आवश्यकता होती है भक्तप्रत्याख्यान मरण में। इसलिए ४० अधिकारों में निर्यापकाचार्य का कथन है और उसकी अन्वेषणा करने के लिए कितने योजनों तक जाने का विधान है।
शास्त्रोक्त गुणों के धारी निर्यापकाचार्य का सान्निध्य पाकर परिणामों की विशुद्धि, स्थिरता आदि अनेक गुण प्रकट होते हैं।
* निर्यापकाचार्य के गुण * आचारवान - पंचाचार का पालन करने वाला हो। आधारवान - बहुश्रुत का पाठी हो। व्यवहारवान - गुरुपरम्परा से आगत प्रायश्चित्त शास्त्रों का ज्ञाता हो।