________________
आराधनासार - ८५
अतीवोत्पन्नपिपासा प्रति प्रतीकारमकुर्वतो भिक्षाकालेऽपींगिताकारादिभिरपि योग्यमपि पानमप्रार्थयतो धैर्यप्रज्ञाबलेन पिपासासहनं ॥२॥ शैत्यहेतुसन्निधाने तत्प्रतीकारानभिलाषस्य देहे निर्ममस्य पूर्वानुभूतोष्णमस्मरतो विषादरहितस्य संयमपालनार्थं शीतक्षमा॥३॥ दाहप्रतीकाराकांक्षारहितस्य शीतद्रव्यप्रार्थनानुस्मरणोपेतस्य चारित्ररक्षमाणलहा।।४ दशमः शिक्षिगाणस्थाचलितचेतसः कर्मविपाकं स्मरतो निवृत्तप्रतीकारस्य शस्त्रधातादिपरान्मुखस्य दंशादिबाधासहनं ।।५।। दंशग्रहणेन सिद्धे मशकग्रहणं सर्वोपघातो पलक्षणार्थं । स्त्रीरूपाणि नित्याशुचिबीभत्सकु णपभावेन पश्यतो यथाजातरूपमसंस्कृतविकारमभ्युपगतस्य वैराग्यमापन्नस्य ननमुत्तमं ॥६॥
____ कुतश्चिदुत्पन्नामरति निवार्य धृतिबलात्संयमरतिभावनस्य विषयसुखरति विषसमानं चिंतयतो दृष्टश्रुतानुभूतरतिस्मरणकथाश्रवणरहितस्यारतिपरीषहजयस्तेन चक्षुरादीनां सर्वेषामरतिहेतुत्वात् पृथगरतिग्रहणम
आहार करने के बाद अथवा उपवास आदि के कारण तीव्र प्यास उत्पन्न होने पर भी उसके प्रतिकार की इच्छा नहीं करते हैं तथा आहार के समय भी योग्य पानक (जलादि) की प्रार्थना नहीं करते हैं अपितु संतोष रूपी जल के द्वारा वा ज्ञान रूपी जल के द्वारा पिपासा को शांत करते हैं उसको पिपासा परीषह विजयी कहते हैं॥२॥
___ शीत के कारण शीतल वायु आदि का सन्निधान होने पर उस शीत का प्रतिकार करने की अभिलाषा नहीं करने वाले, पूर्व में अनुभूत उष्ण वस्त्र आदि का स्मरण नहीं करने वाले और कितनी भी शीत की बाधा होने पर भी खेद-खिन्न नहीं होने वाले महामुनिराज के शीत परीषह विजयीपना प्राप्त होता है अर्थात् वे शीत परीषह विजयी होते हैं ॥३॥
ग्रीष्म काल की प्रचण्ड गर्म वायु से जिसका शरीर झुलस रहा है, कण्ठ सूख रहा है और पित्त के द्वारा जिसके अंतरंग में दाह उत्पन्न हो रहा है, फिर भी जो गर्मी से बचने का विचार नहीं करते अपितु आत्मध्यान रूपी शीतल गृह में प्रवेश कर गर्मी की वेदना को शांतिपूर्वक सहन करते हैं, उनके उष्ण परीषह-जय होता है॥४॥
__जो डाँस, मच्छर, चींटी, मक्खी, बिच्छू आदि के काटने से उत्पन्न वेदना को शांतिपूर्वक सहन करते हैं, उनके दंशमशक परीषह-जय होता है। दंशमशक यह उपलक्षण मात्र है। इससे इसके सदृश शरीर को बाधा देने वाले सभी जीवों को ग्रहण करना चाहिए ॥५॥
स्त्रियों के रूप को नित्य अशुचि, बीभत्स और शव भाव से देखने वाले असंस्कारित यथाजात रूप को प्राप्त और संसार-शरीर एवं भोगों से अत्यन्त वैराग्य भाव को प्राप्त मुनिराज के नग्न परीषह विजयत्व प्राप्त होता है। अर्थात् जो मुनि नग्नता के प्रति अपने मन में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होने देते वे नग्न परीषह विजयी होते हैं ॥६॥
किसी कारण से उत्पन्न अति को धैर्यबल से दूर करके, संयम में रति (अनुराग) भाव में तत्पर, विषयसुख को विष के समान चिन्तन करने वाले और देख्ने हुए, सुने हुए तथा अनुभूत विषयों के स्मरण,