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________________ 65 पवनंजय - बन्धुजनों का सान्निध्य अनुभूत शोक को दुगुना कर देता है । प्रतिसूर्य - वसन्तमाला के द्वारा अञ्जना का वृतान्त निवेदन किए जाने पर मैं अनुरुह द्वीप में ही वत्सा अञ्जना को ले जाने के लिए मन में निश्चय कर वहीं रत्नचूडा के साथ वत्सा की कुशल पूछने के लिए आए हुए गन्धर्वराज मणिचूड से योग्य बातचीत कर क्षण भर ठहरा । पवनंजय - फिर क्या हुआ ? प्रतिसूर्य - जिन्होंने स्नेह सम्बन्ध का प्रदर्शन किया है, ऐसे उन दोनों से अनुमोदित गपन वाली वत्सा जिस किसी प्रकार भेजी गई । पवनजय - फिर । प्रतिसूर्य - अनन्तर प्रथम हो विमान पर चढ़कर रत्नकूट कटक पर स्थित वसन्तमाला के हाथ से लाने की इच्छा करने वाले मेरे हाथ में पहुंचे बिना ही विमान में धारित रत्नकिरणों के स्फुरण से तिरोहित सूर्य के बिम्ब को लेने के लिए ही मानों उछलते हुए वत्स यकायक शिलातल पर गिर पड़ा । पवनजय - (विषाद पुर्वक, दोनों कान बन्द कर) पाप शान्त हो । विदूषक - (शोक सहित कान बन्द कर) आहह । अंजना - (आँखों में आंसू भरकर) ओह, मेरे जीवन की निष्ठुरता, जो कि उस समय प्रत्यक्ष हो वत्स हनुमान् को शिलाओं के देर पर गिरते हुए देखकर निष्ठुर ही रहा । वसन्तमाला - (हनुमान के अङ्गों का स्पर्श करती हुई) वल्प, दीर्घायु होओ । विदूषक - महाराज, इस संकट के आगे की बात शीघ्र कहिए । प्रतिसूर्य - अनन्तर शोक के आवेग से स्तब्ध इन दोनों के स्थित रहने पर मैं भी अन्तरङ्ग में शुष्क हृदय वाला होकर घबड़ाहट पूर्वक इन दोनों से मत डरो' इस प्रकार धैर्य बंधाता हुआ । उस क्षण मानों वज्रपात से कणों के रूप में फैली हुई उस शिला के मध्य में शयन करते हुए अबालकृत्य तुम्हारे महान् प्रभाव वाले बालक पुत्र को देखा ||12|| पवनंजय - (हनूमान् को लाकर और गले लगाकर) वत्स, चिरकाल तक जिओ । प्रतिसूर्य - अनन्तर विस्मय और हर्ष के साथ उस हनूमान् को 'यह चरम देह है, इस प्रकार सम्मान पूर्वक लाकर हम लोग विमान पर आरोहण कर अनुरुह द्वीप को ही गए । पवनंजय - अनन्तर प्रतिसूर्य - अनन्तर हम लोगों के द्वारा यथा योग्य जात कर्म आदि संस्कार किए जाने पर, समय बीत जाने पर महाराज प्रहलाद ने महेन्द्रराज से आपके वृत्तान्स के निवेदन पूर्वक आपको खोजने के लिए बुलाया । मतङ्गमालिनी में प्रवेश कर चारों ओर ढुंढते हुए रत्नकूट पर्वत की वनमाला की मध्यवर्तिनी मकरन्द वापिका के किनारे चन्दनलता गृह में वर्तमान कल्याण के लिए दढ़ प्रतिज्ञ आपको प्राप्त कर वत्सा अञ्जना के साथ वहीं मैं पुनः आ गया ।
SR No.090049
Book TitleAnjana Pavananjaynatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size1 MB
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