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________________ सूत - पवनंजय - युक्तिमती - पवनजय - सूत - पवनंजय - पवनंजय - विदषक - पवनंजय - विदूषक - पवनंजय - 34 महाराज और महारानी के दर्शन किए बिना तुम्हारा जाना मुझे ठीक नहीं लग रहा है। युक्तिमती ने ठीक ही कहा है। मुझे आया हुआ ही समझो । मैं मुहूर्त भर भी देर नहीं करूंगा । तो इसी समय पवनंजय आ रहा है, यह बात पिता और माँ से निवेदन कर दो । जो कुमार की आज्ञा । (विषाद पूर्वक मन ही मन) इसका परिणाम क्या होगा ? (इस प्रकार चली जाती है) सारथी, तुम भी यहाँ ठहरकर मेरे वचनों के अनुसार सेनापति मुद्गर से कहो कि मैं महेन्द्रपुर जाकर प्रिया के साथ ही आकर पिताजी और माँ के दर्शन करूँगा । आप यहाँ पर सब के साथ प्रतीक्षा करें । आयुष्मान् ! इस समय अनुयायी कहाँ है? मित्र साथ में ही आ रहा है । यह समस्त कार्यों में मन्त्री है, उन उन हंसी की बातों में परम मित्र है, युद्धों में तलवार के साथ भुजा है, इससे कुछ भी दुःसाध्य नहीं है | 14| तो जाओ ( रथ के साथ 'चला जाता है। (पास से देखकर)ओह यह कालमेघ आ गया है । तो इसी पर चढ़कर दोनों चलते हैं । (चढ़ने का अभिनय कर) मित्र, आओ चढ़े । मित्र. मैं समर्थ नहीं है । यह बढ़े वेग वाला है। भले ही हो, मत डरो । वैसा हो हो । हे मित्र, मद रूप जल की वर्षा करने वाले आकाश को पारकर पवनवेग से प्रेरित हुआ, बादल के समान श्यामल शरीर वाला यह हाथी इस समय सचमुच कालमेव है । 1115|| (सामने देखकर) हे मित्र, पूर्व समुद्र के समीप नाभिगिरि दिखाई दे रहा है! जो यह अत्यधिक चंचल पंखों के समान कर्णपल्लवों से बहते हुए मद जल के स्रोत से युक्त झरनों को धारण कर रहा है । जिस प्रकार बड़ा हाथी वन को गन्ध से युक्त हाथियों के नितम्ब भाग पर अपने पुत्रों को धारण करता है । 16|| हे मित्र, गजराज को रोको ।। (हाथी को रोककर) मित्र, यह क्या है । आपके विद्याबल से स्थिर आसन वाला होने पर भी मैं इसके वेग से अत्यधिक थक गया हूँ । अतः इसी पर्वत की उद्यानवीथी में यह सरकण्डों के वन वाला छोटा सा सरोवर दिखाई दे रहा है, जब तक इसके तीर प्रदेश में मुहूत भर विश्राम कर दोनों चलते हैं। जो तुम्हें रुचिकर लगे । (हाथी से उतारता हुआ) पहले जो पदार्थ दूर होने के कारण कठिनाई से देखे जाने वाले और छोटे से प्रतीत होते थे, सज्जनों के स्वभाव के समान वे समीप में देखे आने पर बड़े हो जाते हैं | ||17॥ विदूषक - पवनंजय - विदूषक - पवनंजय -
SR No.090049
Book TitleAnjana Pavananjaynatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size1 MB
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