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अहिंसा की विजय - १३
नाशिकदेव के बट से कसे रक्तवारा चालू थी। वह सिस कता अन्तिम स्वासें ले रहा था। उसने सदैव के लिए आत्महत्या कर छुटकारा पाने का प्रयत्न किया था, परन्तु पद्मनाभ ने वैसा नहीं करने दिया ।
देवी के मन्दिर में मची गडबडी, कोलाहल सुनकर बहुत लोग एकत्रित हो गये थे। थोडे ही समय में मन्दिर में होने वाली विचित्र घटना सर्वत्र फैल गयी । यह बलिपूजा का दिन था, यात्रा का अन्तिम दिवस होने से अधिकांश लोग जल्दी ही जाग चुके थे। क्योंकि सूर्योदय के साथ ही बलिपूजा प्रारम्भ होती थी । पर श्राज यह विपरीत ही होने वाला हुआ । यह कौन जानता था ।
सूर्य की सुनहली किरणें पूर्व दिशा के क्षितिज पर छिटकने लगी । दिशायें नव श्रृंगार से सज उठी। परन्तु आज की विजयादशमी की उषा बेला बेचारे निरपराध मूक पशुओं के करुण कन्दन की कारण नहीं हुयी । और न उनके रक्त प्रवाह से ही भूप्रदेश रंजित हुआ । सर्वत्र सभी के हृदय में दया को स्प्रतस्विनी बह रही थी। सनके अन्तःकरण में वात्सल्य, प्र ेम की किरणें फूट रही हैं फिर उन्हें मरण पीडा क्यों होती ? हजारों को जीवनदान प्राप्त हुआ ।
पाखण्डी द्वारा निर्मित देवी की पोली मूर्ति भंग हो गई जमीन पर पड़ी है। पुरोहित के काले कारनामे, मायाजाल के फंदे प्रकट हो गये यह जानकर कितने ही लोगों को महान आनन्द हुआ। बलि देना हमारा धर्म ही है ऐसी मान्यता रखने वाले भावुक भोले जीवों मनुष्यों को भी इस मिथ्या रहस्योद्घाटन से विरक्ति हो गई । हिंसा पाप है, उन्हें प्रतीत होने लगा। हजारों लोग तो इस रचना को देखने के लिए ही मन्दिर में एकत्रित थे । जिस प्रकार पारसमणि का स्पर्श होते ही क्षणमात्र में लौह सुवर्ग हो जाता है, उसी प्रकार देवी के अंध भक्तों के अन्तःकरण से हिसारूप कुधर्म
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