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[अहिंसा की विजय
करने का निश्चय ही किया था, इसी कारण ऐसा लगता था कि उसी ने महाराज को उपवास करने का बढावा दिया, और बलिपूजा को उखाडने का निश्चय किया। ठीक है, तो भो पद्मनाभ का मन बदलने वाला नहीं है । परन्तु न जाने क्या हो ? ऐसा तर्क-वितर्क कर माणिकदेव ने अपना निश्चय कार्यरूप करने का निर्णय किया और अपने राक्षसरूप नरसिंह शिष्य को बुला कर कहा--
"वत्स, आज का अन्तिम दिन है। देवी की महिमा और मेरी प्रतिष्ठा स्थित रहनी चाहिए। यह सब तेरे ही हाथ में है। आज रात्रि को बारह बजे के अन्दर ही अन्दर देवी को राजकन्या के रक्त का टीका लगना है ? और प्रातःकाल सबको यह निश्चय होना चाहिए कि देवी का अपमान करने से राणकन्या को भी मृत्युदण्ड भोगना पडा । बलि बन्द करने का वह प्रयत्न कर रही है न ? जा आज रात्रि प्रथम उसो की बलि देकर पुनः प्रातः पशुबलि प्रारम्भ करनी है ? समझे ? जा, जा............ ।
एक क्षण पहले नरसिंह का हृदय अनेकों विचारों से आन्दोलित था । इस समय माणिकदेव के भाषण से पवन रहित सागर की भांति स्थिर हो गया। यही नहीं रात्रि के बारह बजने के पहिले पहिले मुगावती का रक्त लाकर देवी के ललाट पर तिलकार्चन करूंगा । ऐसी देवी के सम्मुख जाकर उसने हद प्रतिज्ञा की।
युवराज महेन्द्र को भी पकड कर जेल में कैदी बनाकर लाया गया है, यह देखते ही मृगावती बेहोश होकर गिर पड़ी थी । उसे शीतोपचार कर सचेत किया गया, सखियों ने उसे उसके कक्ष में ले जाकर सुला दिया। सायं काल पर्यन्त वह विचार मग्न हुयी सम्म- चुप-चाप पडी रही । उस दिन उसने भोजन भी नहीं किया । वह किसी से कुछ भी बोली भी नहीं थी। संध्या समय देवी के दर्शन कर वापिस आने के बाद पद्मनाभ महाराज मृगावती के पास जाकर बैठ गये। उसकी प्रकृति बहुत ही असक्त हो गई थी। उसका निस्तेजपना देखकर राजा को बहुत दुःख हना । क्योंकि वही तो उसकी एक मात्र सन्तान थी। उसी के लिए धर्म-कर्म विहीन हो पशुबलि प्रारम्भ की थी। उसे कुछ समझा बुझा कर किसी प्रकार प्रसन्न करना, उसका दु:ख निकालना ऐसा राजा का विचार था परन्तु इस समय उसकी हालत देखकर