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[अहिंसा की विजय
दृप्रा । उनके उपदेश के बाद ही एक तेजस्वी तरुण निकलकर देवो के मंदिर की ओर निकल कर गया । इसके उपदेश सुनकर, "यह देवी की यात्रा भंग कर अशान्ति फैलाने वाला पाखण्डी है ऐसा मानकर पुरोहित की आज्ञानुसार पद्मराज महाराज ने उसे राजमहल में ही नजरबन्द कर रख दिया ।
द्वितीय दिवस प्राया । यात्रियों की संख्या बहुत बढ़ गई । प्रतिदिन के अनुसार सवेरे देवी की पूजा प्रारम्भ हयी । देवी को इस दिन निराली ही पोषाक से सजाया था। मन्दिर मनुष्यों से खचाखच भर गया था । लोगों को यह भक्ति देख माणिकदेव प्रानन्द से भर गया था। बड़े-बड़े स्तोत्रों से तेज अावाज से पूजा प्रारम्भ की, उतने ही ठाट-बाट से उसने आरती की। आरती पूर्ण होते ही वाद्यध्वनि बन्द हो गई । वैसे ही दूसरा तेजस्वी तरुण पाया और उसने "अहिंसा परमोधर्म:" जय घोष के साथ अपना उपदेश प्रारम्भ किया । यह देखकर मारिपक देव को अांखें लाल अंमार हो गई। बिजलो के समान घघडाता माणिकदेव बाहर प्रा धमका । उसका इशारा होते ही अनेक लोग उस युवक के ऊपर धावाकर आये और उसे पकड़ कर पुरोहित के सामने लाये । निश्चय के अनुसार उसे भी पहले के समान राजमहल में भेज दिया और जेल में रखवा दिया। देवी के भक्तों ने पुन: काली. माता का जय-जयकार किया । उसकी प्रतिध्वनि गूजते ही पुरोहित हंसता हमा चेहरा ले अन्दर चला गया, एवं सभी लोग इस घटित घटना के विषय में चर्चा करते हुए बाहर जाने लगे।
देवी का यात्रोत्सब निविघ्न समाप्त हो इसके लिए पद्यनाभ राजा हर प्रकार प्रयत्न शील थे । देबी के मन्दिर में किसी प्रकार भी कोई धांधल न मचे इसके लिए बहुत से सिपाही तैनात कर दिये थे । तथा वे स्वयं भी हर रोज सायंकाल भारती में बाते। मृगावती मात्र राजमहल से बाहर कहीं भी नहीं गई थी । हरवर्ष वह अपने पिता के साथ देवी के दर्शनों को आती थी और उसी प्रकार उसके पिता की भी इच्छा उसे अपने साथ लाने की होती। "बलि बन्द होने के पूर्व में देवी का दर्शन करने वाली नहीं" ऐसी उसने प्रतिज्ञा की थी। ऐसा उसने अपने पिता को भी स्पष्ट कह दिया था । इसीसे वह और अधिक उस पर रुष्ट हो गया था ।
मृगावती अपना कक्ष छोड़कर प्रायः वाहर ही नहीं निकलती थी। राज्य के राजमहल में रोज-रोज एक नवीन कैदी आ रहा है, यह कहाँ, से