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उत्सव की तैयारी-८
RAMMAR
आश्विन सूदी भासपदा से कालीमाता की यात्रा का प्रारम्भ होने वाला है। यह यात्रा बहत विशाल रूप में भरती थी। पास-पास के अनेक लोग देवी को मनाने-प्रसन्न करने को, मनौती मनाने को, पहले की मानता को पूरी करने आदि इस प्रकार के अपने-अपने अभिप्राय से आते हैं। यात्रा का समय बहुत नजदीक आने के कारण पुरोहित हर वर्ष की भाँति पूरे उत्साह से तैयारी में लगा हुआ था । देवी का मन्दिर रंग-रोगन से सजाया था। सामने बड़ा मण्डप डाल कर सुन्दर ढंग से बनाया गया था। नगारखाने पर विशाल लम्बो-चाँडो पताका लगाई थी, सर्वत्र सजाने का काम चल रहा था। महाद्वार के दोनों ओर हलवाईयों, खोमचे वाले, बस्त्रादि की दुकानें लग रही थीं, खासा बाजार हो गया। चारों ओर धम-धाम मची थी। परन्तु हर साल के समान माणिकदेव को न उत्साह था न चेहरे पर खुशी ही थी। मल्लिपुर में श्री अमरकीनिजी आचार्य महाराज का चातुर्मास चल रहा है इससे मेरे षडयन्त्र का भण्डाफोड़ कब हो जायेगा ? यह भय उसे हर क्षण लगा हुआ था। मेरा जाल तो उघडेगा पर देवी का महात्म्य पूर्ववत टिकेगा कि नहीं ? यह सत्ता निर्मूल होगो क्या ? इसो विवेचना से हर क्षण उसका मन चंचलतरंग की भांति डांवाडोल हो रहा था।
आश्विन मास का बदी पक्ष था। रात्रिपाकाण के बादलों से घिरी थी । धीमी-धीमी बर्षा हो रही थी। घनघोर बादल घिरे थे। देवी के मन्दिर के बाहर चारों ओर स्तब्धता छायी हुई थी। उस स्तब्धता का भेदन करता हआ एक वक्ष के नीचे बैठा नरसिंह महरे विचार में मग्न था। यह माणिकदेव का पट्ट-शिष्य था। रात्रि पहर पर पहर व्यतीत हो रही थी। मध्य रात्रि का समय आया ? माणिकदेव बाहर निकला । नसिंह अभी तक क्यों नहीं पाया ? इसी चिन्ता में वह स्तब्ध खडा हो उसकी बाट जोहने लगा । इसी समय किसी वृक्ष के नीचे एक मनुष्य प्राकृति उने दिखाई दी। धीरे-धीरे माणिकदेव उस आकृति की ओर बढ़ने लगा। अत्यन्त निकट पहुँचने पर, यह हमारा नरसिंह ही है, यह उसने अच्छी तरह पहिचान लिया।