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[अहिंसा की विजय कार्य के लिए युद्ध करने को भी कटिबद्ध है" यह प्राचार्य श्री ने सम्यक् प्रकार ज्ञात कर लिया। किन्तु बिना युद्ध के यह कार्य सफल नहीं हो सकेगा' यह महेन्द्र को धारणा सुनते ही मुनिराज हंसने लगे। और बोले, "वेटेकुमार! , इस कार्य की सिद्धि के लिए हमको सैन्य बल की बिल्कुल भी कोई आवश्यकता नहीं। ये हमारे पाठ युवक हैं न ! ये ही कल और आठ वोर तैयार करेंगे । इस प्रकार आठ-पाठ र पारसी वीर गदि परके ो गये गौर वे इस प्रयत्न में प्राणप्रण से लग गये तो समस्त जन समुदाय का परिणाम बदलने में देर नहीं लगेगी। पशुबलि रोकने के लिए युद्ध करने का अर्थ क्या ? रक्त से मल्लिपुर की भूमि को रंगना ? पशुसंहार के स्थान पर नर संहार ? न ही नहीं यह कभी होने वाला नहीं ।” अाफ्का मन्तव्य ठीक है, परन्तु कदाचित् आरके हेतू प्रमाण युद्ध करके यश प्राप्त हो जाय, परन्तु जनता का हृदय परिवर्तन करना, शुद्ध अहिंसाधर्म की अमिट छाप उनके मन पर अंकित करने को नहीं हो सकेगा। बलि देना अधर्म है, यह पाप है ऐसा प्रत्येक के मन में पाना चाहिये। तथा उनके हृदय में दयाधर्म के प्रति प्रीति-रुचि उत्पन्न होना चाहिए। तभी हम सफल हुए यह समझा जायेगा । अहिंसा का महत्व यदि एक बार लोगों के हृदय में जम गया तो फिर वे कभी भी सत्य से द्विगने वाले नहीं, कभी हिंसा कर्म करने को तैयार नहीं हो सकते । "बच्चे ! लोहे से लोहा नहीं करता, आग से प्राग नहीं बुझती ।" इस प्रकार महाराज पूर्ण दृढता से बोल रहे थे। कुमार सुन रहा था । उसका रोम-रोम पुलकित था।
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उस समय मृगावती यद्यपि स्त्रियों के झण्ड में थी परन्तु उसका पूगपूरा ध्यान आचार्यजी के और महेन्द्र के बीच चलने वाले वार्तालाप की ओर ही लगा हुअा था । सैन्य युद्ध, इस प्रकार के कोई शब्द उसके कान में पाये । इससे वह बहुत ही खिन्न हो गई थी। उस राजपुत्र चम्पानगर के राजा के घुवराज की प्राचार्य श्री के प्रति प्रगाह भक्ति है। काली देवी को बलि चन्द करने का इनका अभियान है। इसी के लिए वह आया है, इसके उद्देश्य से पिता ने उसे भेजा है यह समाचार मृगावती की सखी ने उसे स्पष्ट आकर समझाया । सर्व चर्चा की ।
कदाचित् बलिपूजा रोकने को राजपुत्र ने युद्ध किया तो मेरे वृद्ध पिता पर भयङ्कर सङ्कट आयेगा ही। इस प्रकार की भयातुर करने वाली शङ्का उसके मन में आई । मृगावती जैसी हठो थी वंसी ही डरपोक भी थी।