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तरुणों की प्रतिज्ञा-६
मण्डप का ढंग अनोखा था। एक तरफ स्त्रियाँ और दूसरी ओर पुरुष बैठे थे । मण्डप खचाखच भर चुका था । मध्यभाग में पाषाण सिंहासन पर आचार्य श्री अमरकीति जी विराजमान थे । उस चबूतरे के पास ही राजकुमार महेन्द्र बैठा था । और बांयी ओर स्त्रीसमुदाय में अपनी सखी सहित नीचे गर्दन झुकाये मगावती बंट गई । मण्डप भर जाने से कितने ही लोग बाहर खडे थे । महाराज श्री का उपदेश प्रारम्भ हो गया था । सभी लोग बडी शान्तता से सुन रहे थे । आज महाराज पद्मनाभ को राज कन्या महाराज के दर्शनों को आयी थी, इस कारण सभी को एक नवीन अचम्भा लग रहा था। कितनी ही स्त्रियाँ राजकुमारी मगावती को तुच्छ दृष्टि से देख रहीं थीं। कितनी ही महिलाओं को उसके प्राने से बड़ा गौरव हो रहा था। बीच-बीच में मगावती तिरछी नजर से, लोगों की आँख बचाकर महेन्द्र की ओर अपनी दृष्टि डाल रही थी। एकाद बार उसकी नजर युवराज की दृष्टि से भी टकरा गई, अर्थात चार आख मिल गई । जिससे नीचे नजर कर उसके मन में विशाल तुमुल युद्ध चल रहा था । महेन्द्र युवराज का लक्ष्य मात्र प्राचार्य श्री के उपदेश की ओर लग रहा था।
"धर्म के नाम पर हिंसा करना कितना घोर पाप है" यह था आज का उपदेश का विषय । प्राचार्य श्री इसी विषय पर अपना मनोनीत सुन्दर भाषण दे रहे थे। उनके धर्मोपदेश का सारांश निम्न प्रकार है
हे भव्य स्त्रो पुरुषो ! आप सबको सुख की इच्छा है । और उस सुख को प्राप्ती के लिए रात-दिन प्रापकी धुन-बुन चालू है । सबका प्रयत्न भिन्नमिन्न प्रकार का है । प्रत्येक का सुख प्राप्ति का मार्ग भी पृथक्-पृथक् है । इस लोक में सुख मिले और पर लोक में भी सुख प्राप्त हो ऐसी जिस की चाह है वह कोई भी अन्याय का माग स्वीकार नहीं करेंगे। परन्तु जिन्हें अच्छे-बुरे को पहिचान नहीं है, न्याय और अन्याय का भेद नहीं मालूम है, अथवा पुण्य पाप को पहिचान नहीं है, वे लोग स्वयं के सुख के लिए दूसरों का घात करने को तैयार रहते हैं । परन्तु, इस प्रकार दूसरे का घात कर,