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[ अहिंसा की विजय प्रसिद्ध किया । यह कन्या बच गई । उस काली देवी के पुजारी ने राजा को यह प्रत्यक्ष प्रमाण सरी वा बतला कर बहका लिया। राजा भी निश्चय कर बैठा कि इस देवी पूजा के कारण हो से यह कन्या जीवित रह सकी है ! इस समय इस कन्या की उम्र चौदा-पन्द्रह साल की होगी । तभी राजा देवी का परम भक्त बन गया और सच्चे देष की उपासना छोड़ की। पाकि उसका विश्वास दृढ हो गया कि कालीदेवी को अनुकम्पा से ही यह कन्या जीवित रह सकी है। अत: प्रत्यक्ष प्रमाण से ही बह देवी का एक निष्ठ भक्त बन बैठा । यही नहीं काली देवी का मन्दिर बना कर प्रतिवर्ष महापूजा करी तो आपको पुत्र हो जायेगा इस शर्त से राजा ने अतिशीघ्न पहाड के ठीक नीचे ही एक सुन्दर मन्दिर बनवा कर काली देवी की स्थापना की। नगर वाहर यह मन्दिर अपने ढंग का निराला ही था । इस प्रकार राजा दिनोंदिन देवी का परम भक्त हो गया । उसी समय से आज तक पन्द्रह वर्षों से राजा कभी भी पहाड पर श्रीमल्लि तीर्थङ्कर के दर्शन को नहीं गया।
काली माँ का मन्दिर तैयार होने के बाद से ही हर साल महापूजा में हजारों मूक पशुओं की बलि होने लगी। रक्त की धारा बहने लगी। परन्तु राजा की पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूर्ण नहीं हुई तो भी उनका काली देवी की भक्ति कम नहीं हुयी। क्योंकि वह स्वयं देवीं का दास बना और देवी उसे प्रत्यक्ष हुयी ऐसा दृश्य उसे दिखाया गया । "यथा राजा तथा प्रजा" नीति के अनुसार मल्लिपुर की हजारों जनता देवी की भक्त बन गयी। थोड़े ही दिनों में उस काली देवी का विशेष प्रभाव प्रख्यात हो गया।
जिस काली भक्त के कहने से महाराजा ने मन्दिर बनवाया था। वह बुद्ध सन्यासी था । अतः स्थापना के कुछ दिन बाद-शीघ्र ही वह मर गया । उसके स्थान पर उसी का शिप्य माणिकदेव उस काल मन्दिर का अधिकारी बना था । राजा से इसे देवी की पूजा करने के लिये भरपूर सामग्री मिलती ही थी। इसके अतिरिक्त अनेकों भावक भक्त नाना प्रकार के वस्त्रालंकार और पुजापादि चढ़ाते थे। इससे देवी के द्वारा अत्यन्त भरपूर सामग्री मिलने से धूर्त माणिकदेव भी पक्का पण्डा हो गया और राजा भी उसके बढते प्रभाव से देवी की महिमा समझ मासिकदेव पर लट्ट हो गया , सामान्य लोग उसे राजगुरु ही समझने लगे।
अब क्या था, माणिकदेव ने देवी के मन्दिर के पास ही एक विशाल सुन्दर आरामदायक मठ तयार कराया । उसमें माणिकदेव रहने लगा। राजा