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## Adipurana **65.** Just as water becomes pure when the impurities are removed, so too your right faith becomes pure when the impurities of false beliefs are removed. **66.** O Lord, although you possess other gains like charity and profit, they are not relevant to you. For a person who has achieved their purpose, external material connections are meaningless. **67.** O Lord, your countless virtues are praised in countless ways. But I, with my limited intellect, am unable to even slightly praise them. **68.** O God, let this be a mere name-only praise of your virtues. We, who have taken refuge in your name, are purified by it. **69.** O Lord, you are called Hiranyagarbha because at the time of your birth, there was a wondrous rain of gold, a golden shower. **70.** You are called Vrishabha because at your birth, the gods showered you with jewels. You are also called Rishabha because you received Mount Meru for your coronation. **71.** O God, you are the embodiment of knowledge, encompassing all that is knowable. Therefore, great sages call you Sarvagata, all-pervading. **72.** O Lord, your names like "Swayi" and others are meaningful and relevant to you. Therefore, you are called Jagajyestha (the greatest in the world), Parameshti (the supreme), and Sanatana (eternal). **73.** O Imperishable, I am unable to hold onto this intellect of mine, which is inspired by devotion to you. Therefore, I have been compelled to praise you. Even though I am not worthy, I am praising you solely out of devotion.
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________________ आदिपुराणम् "प्रसनकलुषं तोयं यथेह स्वच्छतां ब्रजेत् । मिथ्यात्वक मापायादक् शुद्धिस्ते तथा मता ॥ ६५ ॥ त्योऽपि लब्धयः शेषास्त्वयि नार्थं क्रिया कृतः । कृतकृत्ये बहिर्द्रव्यसंबन्धो हि निरर्थकः ॥ ६६॥ एवं प्राया गुणा नाथ भवतोऽनन्तधा मताः । तानहं लेशतोऽपीश न स्तोतुमलमल्पधीः ॥६७॥ तदास्तां ते गुणस्तोत्रं नाममात्रं च कीर्तितम् । पुनाति नस्ततो देव त्वन्नामोद्देशतः श्रिताः ॥६८॥ हिरण्यगर्भमाहुस्त्वां यतो दृष्टिर्हिरण्मयी । गर्भावतरणे नाथ प्रादुरासीतदाद्भुता ॥६९॥ वृषभोऽसि सुरैर्वृष्टरत्नवर्षः स्वसम्भवे । "जन्माभिषिकये मेरुं "मृष्टवान्वृषमोऽप्यसि ॥७०॥ अशेषज्ञेयसंक्रान्तज्ञानमूर्तिर्यतो भवान् । भतः सर्वगतं प्राहुस्त्वां देव परमर्षयः ॥ ७१ ॥ स्वयीत्यादीनि नामानि "विभ्रत्यन्वर्थतां यतः । ततोऽसि त्वं जगज्ज्येष्ठः परमेष्ठी सनातनः ॥७२॥ त्वद्भक्तिचोदितामेनां मामिकां धियमक्षमः । धर्तु स्तुतिपथे तेऽथ प्रवृत्तोऽस्म्येवं मक्षरे ॥७३॥ ។ 3 ५८० है परन्तु आप विषय-कषायोंसे निवृत्त हो चुके हैं - आपकी तद्विषयक आकुलता दूर हो गयी है इसलिए वास्तविक सुख आपमें ही है । यदि विषयवासनाओं में प्रवृत्ति करते रहनेको सुख कहा जाये तो फिर सारा संसार सुखी-ही-सुखी कहलाने लगे क्योंकि संसारके सभी जीव विषयवासनाओंमें प्रवृत्त हो रहे हैं परन्तु उन्हें वास्तविक सुख प्राप्त हुआ नहीं मालूम होता इसलिए सुखका पहला लक्षण ही ठीक है और वह सुख आपको ही प्राप्त है || ६४ || हे भगवन्, जिस प्रकार कलुष - मल अर्थात् कीचड़के शान्त हो जानेसे जल स्वच्छताको प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार मिध्यात्वरूपी कीचड़के नष्ट हो जानेसे आपका सम्यग्दर्शन भी स्वच्छताको प्राप्त हुआ है ||६५ || हे देव, यद्यपि दान, लाभ आदि शेष लब्धियाँ आपमें विद्यमान हैं तथापि वे कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं क्योंकि कृतकृत्य पुरुषके बाह्य पदार्थोंका संसर्ग होना बिलकुल व्यर्थ होता है ॥६६॥ नाथ, ऐसे-ऐसे आपके अनन्तगुण माने गये हैं, परन्तु हे ईश, अल्पबुद्धिको धारण करनेवाला मैं उन सबकी लेशमात्र भी स्तुति करने के लिए समर्थ नहीं हूँ ||६७ | इसलिए हे देव, आपके गुणोंका स्तोत्र करना तो दूर रहा, आपका लिया हुआ नाम ही हम लोगोंको पवित्र कर देता है अतएव हम लोग केवल नाम लेकर ही आपके आश्रयमें आये हैं ||६८|| हे नाथ, आपके गर्भावतरणके समय आश्चर्य करने वाली हिरण्यमयी अर्थात् सुवर्णमयी वृष्टि हुई थी इसलिए लोग आपको हिरण्यगर्भ कहते हैं ||६९ || आपके जन्मके समय देवोंने रत्नोंकी वर्षा की थी इसलिए आप वृषभ कहलाते हैं और जन्माभिषेकके लिये आप सुमेरु पर्वतको प्राप्त हुए थे इसलिये आप ऋषभ भी कहलाते हैं ॥७०॥ हे देव, आप संसार के समस्त जानने योग्य पदार्थोंको ग्रहण करनेवाले ज्ञानकी मूर्तिरूप हैं इसलिए बड़े-बड़े ऋषि लोग आपको सर्वगत अर्थात् सर्वव्यापक कहते हैं ॥७१॥ हे भगवन्, ऊपर कहे हुए नामोंको आदि लेकर अनेक नाम आपमें सार्थकताको धारण कर रहे हैं इसलिए आप जगज्येष्ठ ( जगत् में सबसे बड़े ), परमेष्ठी और सनातन कहलाते हैं ॥ ७२ ॥ हे अविनाशी, आपकी भक्तिसे प्रेरित हुई अपनी इस बुद्धिको मैं स्वयं धारण करनेके लिए समर्थ नहीं हो सका इसलिए ही आज आपकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हुआ हूँ । भावार्थयोग्यता न रहते हुए भी मात्र भक्तिसे प्रेरित होकर आपकी स्तुति कर रहा हूँ ॥ ७३ ॥ १. प्रशान्त-ल०, इ०, ५०, प०, अ०, स० म० । २. दर्शन । ३. वीर्यादयः । ४. अर्थक्रियाकारिण्यः, ५. एवमादयः । ६. तिष्ठतु । ७. कारणात् । ८. नामसंकीर्तनमात्रतः । ९. -तवाद्भुता- ब०, ६०, ल०, इ०, म० अ०, स०, प० । १०. अभिषेकाय । ११. गतवान् । १२. धारयन्ते । १३. प्रवृत्तोऽस्म्यहमक्षर 150, म० । १४. अविनश्वर ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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