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- The Twenty-Third Chapter The Lord, the first Tirthankara, adorned the lion throne. He was elevated four finger-breadths above the throne by his own magnificence, without touching the base. ||29|| Indra and other gods, with great reverence, showered flowers from the sky like clouds, upon the Lord seated on the throne. ||30|| The rain of flowers, buzzing with intoxicated bees, filled the sky like a garland of bees, or a garland of flowers worn by men. ||31|| The rain of flowers, released by the divine clouds, covered the earth for twelve yojanas with pollen, a wondrous sight. ||32|| The rain of flowers, pleasing to the eyes, fell near the Lord, like the eyes of women. ||33|| The rain of flowers, scattered by the divine beings, was adorned with pollen from the swarm of bees, and was very beautiful. ||34|| The rain of flowers, soaked with the cool waters of the Ganges, was filled with bees and its fragrance spread everywhere. ||35|| Near the Lord stood an Ashoka tree, adorned with emerald green leaves and jeweled flowers, its branches swaying gently in the breeze. ||36|| The Ashoka tree, filled with intoxicated bees and cuckoos, filled all directions with its sweet sounds, as if praising the Lord. ||37|| 1. Pari-charya-chakra-ire, seva-chakra-ur-ity-artha. 2. Aach-chadayanto. 3. Dva-dasha-yojana-pramit-bhu-bhag-am vya-pya. 4. Ma samanta-an mukta. 5. Vistritam. 6. Stri-na-am. 7. Su-manas-a-am kusuma-na-am sambandhini.
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________________ - त्रयोविंशं पर्व अनुष्टुप् विष्टरं तदलंचक्रे भगवानादितीर्थकृत् । चतुमिरजुलैः स्वेन महिम्ना स्पृष्टतत्तलः ॥२९॥ तत्रासीनं तमिन्द्रायाः परिचेरु महेज्यया । पुष्पवृष्टिं प्रवर्षन्तो नभोमार्गाद् घना इव ॥३०॥ अपप्तत्कौसुमी वृष्टिः प्रोणुवाना नभोमणम् । रष्टिमालेव मत्तालिमाला वाचालिता नृणाम् ॥३१॥ द्विषड्यो जनभूमागमामुक्ता सुरवारिदैः । पुष्पवृष्टिः पतन्ती सा व्यधाञ्चित्रं रजस्ततम् ॥३२॥ चित्रपदावृत्तम् वृष्टिरसौ कुसुमानां तुष्टिकरी प्रमदानाम् । रष्टिततीरनुकृत्य नटुरपप्तदुपान्ते ॥३३॥ षट्पदवृन्दविकीणैः पुष्परजोमिरुपेता । वृष्टिरमयविसृष्टा सौमनसी रुरुचेऽसौ ॥३४॥ शीतलैर्वारिमिर्गाङ्गरादिता कौसुमी वृष्टिः । षड्भेदैराकुलापप्तत् पस्युरले ततामोदा ॥३५॥ भुजगशशिभृतावृत्तम् मरकतहरितैः पत्रैर्मणिमयकुसुमैश्वित्रः । मरुदुपविधुताः शाखाश्चिरमपृत महाशोकः ॥३६॥ मदकलविरुतै गैरपि परपुष्टविहरूगैः । स्तुतिमिव भर्तुरशोको मुखरितदिक्कुरुते स्म ॥३७॥ प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेव उस सिंहासनको अलंकृत कर रहे थे। वे भगवान् अपने माहात्म्यसे उस सिंहासनके तलसे चार अंगुल ऊँचे अधर विराजमान थे उन्होंने उस सिंहासनके तलभागको छुआ ही नहीं था ॥२९॥ उसी सिंहासनपर विराजमान हुए भगवान्की इन्द्र आदि देव बड़ी-बड़ी पूजाओं-द्वारा परिचर्या कर रहे थे और मेघोंकी तरह आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ।।३०।। मदोन्मत्त भ्रमरोंके समूहसे शब्दायमान तथा आकाशरूपी आँगनको व्याप्त करती हुई पुष्पोंकी वर्षा ऐसी पड़ रही थी मानो मनुष्योंके नेत्रोंकी माला ही हो ॥३१॥ देवरूपी बादलों-द्वारा छोड़ी जाकर पड़ती हुई पुष्पोंकी वर्षाने बारह योजन तकके भूभागको पराग (धूलि) से व्याप्त कर दिया था, यह एक भारी आश्चर्यकी बात थी। भावार्थ-यहाँ पहले विरोध मालूम होता है क्योंकि वर्षासे तो धूलि शान्त होती है न कि परन्तु जब इस बातपर ध्यान दिया जाता है कि वह पुष्पोंकी वो थी और उसने भूभागको पराग अर्थात् पुष्पोंके भीतर रहनेवाले केशरके छोटे-छोटे कणोंसे व्याप्त कर दिया या तब यह विरोष दूर हो जाता है यह विरोधाभास अलंकार कहलाता है ॥३२॥ खियोंको सन्तुष्ट करनेवाली वह पूछोंकी वर्षा भगवानके समीपमें पड़ रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो त्रियोंके नेत्रोंको सन्तति ही भगवान के समीप पड़ रही हो॥३॥ भ्रमरों के समूहोंके द्वारा फैलाये हुए फूलोंके परागसे सहित तया देवों के द्वारा बरसायी यह पुष्पोंकी वर्षा बहुत ही अधिक शोभायमान हो रही थी ॥३क्षा जो गंगा नदीके शीतल जलसे भीगी हुई है, जो अनेक भ्रमरोंसे व्याप्त है और जिसकी सुगन्धि चारों ओर फैली हुई है ऐसी वह पुष्पोंकी वर्षा भगवानके आगे पड़ रही थी॥३५॥ भगवान्के समीप ही एक अशोक वृक्ष था जो कि मरकतमणिके बने हुए हरे-हरे पत्ते और रत्नमय चित्र-विचित्र फूलोंसे सहित था तथा मन्द-मन्द वायुसे हिलती हुई शाखाओंको धारण कर रहा था ॥३६॥ वह अशोकवृक्ष मदसे मधुर शब्द करते हुए भ्रमरों और कोयलोंसे समस्त दिशाओंको शब्दायमान कर रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो १. परिचर्या चक्रिरे, सेवां चक्रुरित्यर्थः । २. आच्छादयन्तो। ३. द्वादशयोजनप्रमितभूभागं व्याप्य । ४. मा समन्तान्मुक्ता । ५. विस्तृतम् । ६. स्त्रीणाम् । ७. सुमनसां कुसुमानां संबन्धिनी।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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