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________________ • अष्टादशं पर्व 1 स्खलद्गतिवशादुच्चैरारणन्मणिनपुरौ । चरणैररुणाम्भोजैरिव व्यक्तालिङ्कृतैः ॥ २००॥ सलीलमन्थ' स्यतिः जितहंसी परिक्रमैः । श्वसितैः सकुचात्कम्पैर्व्यञ्जिता न्तर्गतक्लमैः ॥२०१॥ समं युवभिरारूड नवयौवनकर्कशाः । विचरन्तीर्वनान्तेषु दधानं खचरीः क्वचित् ॥ २०२॥ अलकाली लसद्भृङ्गास्तन्वीः कोमलविग्रहाः । लतानुकारिणीरूढ स्मितपुष्पोद्गम श्रियः ॥ २०३ ॥ प्रसूनरचिताकल्पावतंसीकृतपल्लवाः । 'कुसुमावचये सक्ताः संचरन्तीरितस्ततः ॥२०४॥ वनलक्ष्मीरिव व्यक्तलक्षणा वनजेक्षणाः । धारयन्तमनूद्यानं विद्याधरवधूः क्वचित् ॥ २०५ ॥ तमित्यद्रीन्द्रमुद्भूतमाहात्म्यं भुवनातिगम् । जिनाधिपमिवासाथ कमारो "रतिमापतुः ॥ २०६ ॥ * हरिणीच्छन्दः 'श्रुततटवनाभोगा भागीरथी तटवेदिका परिसर सरोवीची "भेदादुपोढपयः कणाः । वनकरिकटादाकृष्टालिव्रजा महतो गिरेरुपवनभुवो "यूनोरध्वश्रमं " व्यपनिन्यिरे ॥ २०७॥ १२ ४१७ हुई चलती थीं इसलिए उनके मणिमय नूपुरोंसे रुनझुन शब्द हो रहा था और जिससे ऐसा मालूम होता था मानो उनके चरणरूपी लाल कमल भ्रमरोंकी झंकारसे झङ्कृत ही हो रहे हों। वे विद्याधरियाँ लीलासहित धीरे-धीरे जा रही थीं, उनकी चालने हंसिनियोंकी चालको भी जीत लिया था, चलते समय उनका श्वास भी चल रहा था जिससे उनके स्तन कम्पायमान हो रहे थे और उनके अन्तःकरणका खेद प्रकट हो रहा था । इस प्रकार प्राप्त हुए नव यौवनसे सुदृढ़ विद्याधरियाँ अपने तरुण प्रेमियोंके साथ उस पर्वत के वनोंमें कहीं-कहीं पर विहार कर रही थीं ।।१९२-२०२।। वह पर्वत अपने प्रत्येक वनमें कहीं-कहीं अकेली ही फिरती हुई विद्याधरियोंको धारण कर रहा था, वे विद्याधरियाँ ठीक लताके समान जान पड़ती थीं क्योंकि जिस प्रकार लताओंपर भ्रमर सुशोभित होते हैं उसी प्रकार उनके मस्तकपर भी केशरूपी भ्रमर शोभायमान थे, लताएँ जिस प्रकार पतली होती हैं उसी प्रकार वे भी पतली थीं, लताएँ जिस प्रकार कोमल होती हैं उसी प्रकार उनका शरीर भी कोमल था और लताएँ जिस प्रकार पुष्पों की उत्पत्तिसे सुशोभित होती हैं उसी प्रकार वे भी मन्द हास्यरूपी पुष्पोत्पत्तिकी शोभासे सुशोभित हो रही थीं । उन्होंने फूलोंके आभूषण और पत्तोंके कर्णफूल बनाये थे तथा वे इधरउधर घूमती हुई फूल तोड़ने में आसक्त हो रही थीं। उनके नेत्र कमलोंके समान थे तथा और भी प्रकट हुए अनेक लक्षणोंसे वे वनलक्ष्मीके समान मालूम होती थीं ॥ २०३ - २०५॥ इस प्रकार जिसका माहात्म्य प्रकट हो रहा है और जो तीनों लोकोंका अतिक्रमण करनेवाला है ऐसे जिनेन्द्रदेवके समान उस गिरिराजको पाकर वे नमि, विनमि राजकुमार अतिशय सन्तोषको प्राप्त हुए ॥ २०६ ॥ | जिसने तटवर्ती वनोंके विस्तारको कम्पित किया है, जिसने गङ्गा नदीके तटसम्बन्धी वेदीके समीपवर्ती तालाबकी लहरोंको भेदन कर अनेक जलकी बूँदें धारण कर ली हैं और जिसने अपनी सुगन्धिके कारण वनके हाथियोंके गण्डस्थलसे भ्रमरोंके समूह अपनी ओर खींच लिये हैं ऐसे उस पर्वत उपवनोंमें उत्पन्न हुए वायुने उन दोनों तरुण कुमारों के १. मन्दः । २ गमनैः । ३. पदन्यासः । ४ व्यक्तीकृत । 'व्यज्जिताङ्गतक्लमः' इत्यपि पाठः । ५. श्रमः । ६. प्रकटीभूत । ७. 'ललद्' इत्यपि क्वचित् पाठः । चलद् । ८. कुसुमोपचये । ९ आसक्ताः । १०. उद्यानमुद्यानं प्रति । ११. संतोषम् । १२. गङ्गा । १३. पर्यन्तभूः परिसरः । १४. आश्रयणात् । १५. उपवने जाताः । १६. परिहरन्ति स्म । ५३
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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