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________________ २६८ आदिपुराणम् 'चारिभिः करणभित्रै साङ्गहारेच रेचकः । मनोऽस्याः सुरजत्तक्याः संप्रेक्षणोरकम् ॥१९ काश्चित् संगीतगोष्ठीषु दरोगिन्नस्मितैर्मुखैः । बभुः परिवादिजन्यो विरलोनिसकेसरः ॥१९॥ काश्रिदोडामसंद्रष्टवेणवोऽणुभ्रुवो बभुः । मदनाग्निमिवाध्मातुंः कृतयत्नाः सफूत्कृतम् ॥ १९९॥ वेणुध्मा बैणवी यष्टीर्माजन्त्यः करपल्लवैः । चित्रं पल्लवितांश्रक्रुः प्रेक्षकामा मनोमान् ॥२०॥ संगीतकविधौ काश्चित् स्पृशन्त्यः परिवादिनीः । कराहुलीमिरातेनुर्गानमामन्द्रमूर्छनाः ॥२१॥ तन्थ्यो मधुरमारेणु स्तरकराङ्गुलिताडिताः । अयं तान्त्रो गुणः कोऽपि ताड़नाद् याति यदशम् ॥२०२॥ वंशैः संदष्टमालोक्य तासां तु दशनच्छदम् । वीणालावुमि राश्लेषि धनं तस्तनमण्डलम् ।।२०३।। मृदङ्गवादनैः काश्चिद् बभुरुरिक्षतबाहवः । तस्कलाकौशले श्लाघां कतुंकामा इवात्मनः ॥२०४॥ मृदङ्गास्तस्करस्पर्शात् तदा मन्द्रं विसस्वनुः । तत्कलाकौशलं तासामु णा इवोच्चकैः ।।१०५॥ अत्यन्त सुन्दर दिखाई पड़ता था ॥१९५-१९६॥ घे नृत्य करनेवाली देवियाँ अनेक प्रकारकी गति, तरह-तरहके गीत अथवा नृत्यविशेष, और विचित्र शरीरकी चेष्टासहित फिरकी आदिके द्वारा माताके मनको नृत्य देखनेके, लिए उत्कण्ठित करती थीं. ॥१९७॥ कितनी ही देवांगनाएँ संगीतगोष्ठियोंमें कुछ-कुछ हँसते हुए मुखोंसे ऐसी सुशोभित होती थीं जैसे कुछ-कुछ विकसित हुए कमलोंसे कमलिनियाँ सुशोभित होती हैं ॥१९८। जिनकी भौंहें बहुत ही छोटीछोटी हैं ऐसी कितनी ही देवियाँ ओठोंके अग्रभागसे वीणा दबाकर बजाती हुई ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो फूंककर कामदेवरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेके लिए ही प्रयत्न कर रही हों ॥१९९।। यह एक बड़े आश्चर्यकी बात थी कि वीणा बजातेवाली कितनी ही देवियाँ अपने हस्तरूपी पल्लवोंसे वीणाकी लकड़ीको साफ करती हुई देखनेवालोंके. मनरूपी वृक्षाको पल्लवित अर्थात् पल्लवोंसे युक्त कर रही थीं। ( पक्षमें हर्षित अथवा श्रृंगार रससे सहित कार, रही थीं।) भावार्थ-उन देवाङ्गनाओंके हाथ पल्लवोंके समान थे, वीणा बजाते समय उनके हाथरूपी पल्लव वीणाकी लकड़ी अथवा उसके तारोंपर पड़ते थे। जिससे वह वीणा पल्लवित अर्थात् नवीन पत्तोंसे व्याप्त हुई-सी जान पड़ती थी परन्तु आचार्यने यहाँपर वीणाको पल्लवित. न बताकर देखनेवालोंके, मनरूप वृक्षोंको पल्लवित बतलाया है जिससे विरोधमूलक अलंकार प्रकट हो गया है, परन्तु पल्लवित शब्दका हर्षित अथवा शृङ्गार रससे सहित अर्थ बदल द्वेनेपर वह विरोध दूर हो जाता है। संभ्रेपमें भाव यह है कि वीणा बजाते समय उन देवियोंके हाथोंकी चंचलता, सुन्दरता और बजानेकी कुशलता आदि देखकर दर्शक पुरुषोंका मन: हर्षित हो जाता था.॥२००। कितनी ही देवियाँ संगीतके समय गम्भीर शब्द करनेवाली वीणाओंको हाथको अँगुलियोंसे बजाती हुई गा रही थीं ॥२०१॥ उन देवियोंके हाथकी अंगुलियोंसे ताड़ित हई वीणाएँ मनोहर शब्द कर रही थीं सो ठीक ही है. वीणाका यह एक आश्चर्यकारी गुण है.कि ताड़नसे ही वश होती है ।।२०२॥ उन देवांयनाओंके ओठोंको वंशों (बाँसुरी)के द्वारा डसा हुआ देखकर ही मानो वीणाओंके तुंबे उनके कठिन स्तनमण्डलसे आ लगे थे। भावार्थ-वे देवियाँ मुँहसे बाँसुरी, और हाथसे. वीणा बजा रही थीं ।।२०३॥ कितनी. ही देवियाँ मृदंरा बजाते समय अपनी भुजाएँ ऊपर उठाती थीं जिससे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो उस कला-कौशलके विषयमें अपनी प्रशंसा ही करना चाहती हों ।।२०४|| उस समय उन बजानेवाली देवियोंके हाथके स्पर्शसे वे मृदंग गम्भीर शब्द कर रहे थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो १. चारुभिः द०, स० । चारिभिः गतिविशेषैः । २. पुष्पघटादिभिः । ३. वल्गनैः । ४. दरोभिन्न -ईषदुभिन्न । ५. संधुक्षितुम्। ६. वैणविकाः । ७. वेणोरिमाः । ८. -संसृत्य अ०, स०. म०, ल० । ९. सप्ततन्त्री वोणा। 'तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी' इत्यभिधानात् । १०. ध्वनन्ति स्म । ११. औषधसम्बन्धी तन्त्रीसम्बन्धी च । १२. अलावु-तुम्बी । -लाम्बुभिः प० । १३. उत्कर्ष कुर्वाणाः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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