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________________ नवमं पर्व अथ त्रिवर्गसंसर्गरम्यं राज्यं प्रकुर्वतः । तस्य कालोऽगमद् भूयान् भोगैः षड्ऋतुसुन्दरैः ॥१॥ स रेमे शरदारम्भे प्रफुल्लाजसरोजले । वनेश्वयुक्छेदामोदसुमगेषु प्रियान्वितः ॥२॥ सरिस्पुलिनदेशेषु प्रियाजघनहारिषु । राजहंसो प्रति लेभे सधीचीमनुयत्रयम् ॥३॥ कुर्वन्नीलोत्पलं कर्णेस कान्ताया वतंसकम् । शोभामिव शोरस्याः तेनाभूत समिकर्षयन् ॥४॥ सरसाब्जरजःपुअपिञ्जरं स्तनमण्डलम् । स पश्यन् बहुमेनेऽस्याः कामस्येव करण्डकम् ॥५॥ वासगेहे समुत्सर्पद् धूपामोदसुगन्धिनि । प्रियास्तनोष्मणा" भेजे हिमतौं स पर तिम् ॥६॥ कुङ्कुमालिप्ससर्वाङ्गीमम्लानमुखवारिजाम् । प्रियामरमयद् गाढमाश्लिष्यन् "शिशिरागमे ॥७॥ मधौ' मधुमदामत्तकामिनीजनसुन्दरे । वनेषु सहकाराणां स रेमे रामया समम् ॥८॥ अशोककलिका कण न्यस्यबस्था मनोमवः । जनचेतोमिदो दध्यौ शोणिताकाः स तीरिकाः ॥९॥ धर्म धर्माम्बुविच्छेदिसरोऽनिलहतक्लमः । जलकेलिविधौ कान्ता रमयन् विजहार सः ॥१०॥ चन्दनद्रवसिक्ताङ्गों प्रियां हारविभूषणाम् । कण्ठे गृहन स धर्मोत्थं नाज्ञासीत् कमपि श्रमम् ॥११॥ तदनन्तर धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गोके संसर्गसे मनोहर राज्य करनेवाले महाराज वजजंघका छहों ऋतुओंके सुन्दर भोग भोगते हुए बहुत-सा समय व्यतीत हो गया।॥१॥ अपनी प्रिया श्रीमतोके साथ वह राजाशरऋतुके प्रारम्भकालमें फूले हुए कमलोंसे सुशोभित तालाबोंके जलमें और सप्तपर्ण जातिके वृक्षोंकी सुगन्धिसे मनोहर वनोंमें क्रीडा करता था २|| कभी वह श्रेष्ठ राजा, राजहंस पक्षीके समान अपनी सहचरीके पीछे-पीछे चलता हुआ प्रियाके नितम्बके समान मनोहर नदियोंके तटप्रदेशोंपर सन्तुष्ट होताथा॥शा कभी श्रीमतीके कानोंमें नील कमलका आभूषण पहनाता था। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो उस नील कमलके आभूषणोंके छलसे उसके नेत्रोंकी शोभा ही बढ़ा रहा हो ॥४॥ श्रीमतोका स्तनमण्डल तालाबोंकी परागके समूहसे पीला पड़ गया था इसलिए कामदेवके पिटारेके समान जान पड़ता था। राजा वनजंघ उस स्तन-मण्डलको देखता हुआ हुआ बहुत ही हर्षित होता था ॥५॥ हेमन्त ऋतु में वह वजजंघ धूपकी फैलती हुई सुगन्धिसे सुगन्धित शयनागारमें श्रीमतीके स्तनोंकी उष्णतासे परम धैर्यको प्राप्त होता था॥६तथा शिशिर ऋतुका आगमन होनेपर जिसका सम्पूर्ण शरीर केशरसे लिप्त हो रहा है और जिसका मुख-कमल प्रसन्नतासे खिल रहा है ऐसी प्रिया श्रीमतीको गाढ़ आलिंगनसे प्रसन्न करता था ।।७। मधुके मदसे उन्मत्त हुई स्त्रियोंसे हरे-भरे सुन्दर वसन्त में जंघ अपनी स्त्रीके साथ-साथ आमोंके वनों में क्रीडा करता था । कभी श्रीमतीके कानों में अशोक वृक्षकी नयी कली पहनाता था। उस समय वह ऐसा सुशोभित होता था मानो मनुष्यके चित्तको भेदन करनेवाले और खूनसे रंगे हुए अपने लाल-लाल बाण पहनाता हुआ कामदेव ही हो।।। ग्रीष्म ऋतुमें पसीनेको सुखानेवाली तालाबोंके समीपवर्ती वायुसे जिसकी सब थकावट दूर हो गयी है ऐसा वनजंघ जलक्रीड़ा कर श्रीमतीको प्रसन्न करता हुआ विहार करता था ॥१॥ चन्दनके द्रवसे जिसका सारा शरीर लिप्त हो रहा है और जो कण्ठमें हार पहने हुई है १. रेजे म०, ल०। २. सप्तपर्णः। ३. संतोषम् । ४. सहायां श्रीमतीमित्यर्थः। ५. अनुगच्छन । ६. कर्णपूरम् । ७. कर्णपूरकरणेन । ८. संनियोजयन् । ९. शय्यागृहे । १०. उष्णेन । ११. स हिमागमे अ०, प०.द०, स०। १२. मधुमदायत्त-१०,द० । मधुमहामत्त-अ०। १३. ध्यायति स्म। १४. रक्तलिप्तान । १५. बाणान् । तीरकाः ल.। तीरकान् म०।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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