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________________ सप्तमं पर्व १४९ किंवत्र कतिचित् कस्माद् गूहानि प्रकृतानि भोः । मन्ये संमोहमायेदं जनानामिति चित्रितम् ॥१२३॥ ऐशानो लिखितः कल्पः श्रीप्रमं च प्रभास्वरम् । श्रीप्रमाधिपतेः पायें दर्षितेयं स्वयंप्रभा ॥१२॥ कल्पानोकहवीथोयमिदमुत्पाजं सरः । दोलागृहमिदं रम्बं रम्बोऽयं कृतकाचलः ॥१२५॥ कृतप्रणयकोपेयं दर्शितात्र परामुखी । मन्दारवनवीथ्यन्ते तेव पवनाहता ॥२६॥ कनकाद्रितटे क्रीडा ललिता दर्शितावयोः । इतो मणितटोसपत्प्रमाकाण्डपटावृते ॥१२७॥ निगूढ प्रेमसद्भावकैतवापादितेय॑या । ग्योत्सझे मदुल्समात् बलात् पादोऽपितोऽनया ॥१२॥ मणिनपुरमकारचारुणा चरणेन माम् । तारयन्तीह संख्दा काम्न्या सख्येव गौरवात् ॥१२९॥ कृतम्यलीककोपं मां प्रसादयितुमानता । स्वोत्तमान पादौ मे घटयन्तीह दर्शिता ॥१३॥ भव्यतेन्द्रसमायोगगुरु पूजादिविस्तरः । दर्शितोऽत्र निगूढस्तु मावः प्रणयजो मिथः ॥१३॥ इह प्रणयकोपेऽस्याः पादयोनिपतथिहकोत्पलेन सूचना ताब्यमामो नदर्शितः ॥१३२॥ सालक्तकपदाङ्गु मुद्रयाऽस्मदुरःस्थले । वाल्लभ्यताम्छन दत्तं प्रिथया नात्र दर्शितम् ॥१३३॥ उज्ज्वल है और ऐसा जान पड़ता है मानो स्वयंप्रभाका ही रूप हो ॥१२॥ किन्तु इस चित्रमें कितने ही गूढ़ विषय क्यों दिखलाये गये हैं ? मालूम होता है कि अन्य लोगोंको मोहित करनेके लिए ही यह चित्र बनाया गया है ॥१२॥ यह ऐशान स्वर्ग लिखा गया है। यह देदीप्यमान श्रीप्रभविमान चित्रित किया गया है और यह श्रीप्रभविमानके अधिपति ललितांग देवके समीप स्वयंप्रभादेवी दिखलायी गयी हैं ॥१२४॥ यह कल्पवृक्षोंकी पंकिहै, यह फले हुए कमलोंसे शोभायमान सरोवर है, यह मनोहर दोलागृह है और यह अत्यन्त सुन्दर कृत्रिम पर्वत है ॥१२५।।इधर यह प्रणय-कोपकर पराङ्मुख बैठी हुई स्वयंप्रभा दिखलायी गयी है जो कल्ववृक्षोंके समीप वायुसे झकोरी हुई लताके समान शोभायमान हो रही है ॥१२६॥ इधर तट भागपर लगे हुए मणियोंकी फैलती हुई प्रभारूपी परदासे तिरोहित मेरुपर्वतके तटपर हम दोनोंकी मनोहर क्रीड़ा दिखलायी गयी है ॥१२७। इधर, अन्तःकरणमें छिपे हुए प्रेम के साथ कपटसे कुछ ईर्ष्या करती हुई स्वयंप्रभाने यह अपना पैर हठपूर्वक मेरी गोदोसे हटाकर शय्याके मध्यभागपर रखा है ॥१२८॥ इधर, यह स्वयंप्रभा मणिमय नूपुरोंकी झंकारसे मनोहर अपने चरणकमलके द्वारा मेरा ताड़न करना चाहती है परन्तु गौरवके कारण ही मानो सखीके समान इस करधनीने उसे रोक दिया है ।।१२९।। इधर दिखाया गया है कि मैं बनावटी कोप किये हुए बैठा हूँ और मुझे प्रसन्न करनेके लिए अति नम्रीभूत हुई स्वयंप्रभा अपना मस्तक मेरे चरणोंपर रख रही है ॥१३०॥ इधर यह अच्युत स्वर्गके इन्द्रके साथ हुई भेंट तथा पिहितास्रव गुरुकी पूजा आदिका विस्तार दिखलाया गया है और इस स्थानपर परस्परके प्रेमभावसे उत्पन्न हुआ रति आदि भाव दिखलाया गया है ॥१३१।। यद्यपि इस चित्र में अनेक बातें दिखला दी गयी है। परन्तु कुछ बातें छूट भी गयी हैं। जैसे कि एक दिन मैं प्रणय-कोपके समय इस स्वयंप्रभाके चरणोपर पड़ा था और यह अपने कोमल कर्णफूलसे मेरा वाइन कर रही थी; परन्तु वह विषय इसमें नहीं दिखाया गया है ॥१३२॥ एक दिन इसने मेरे वक्षःस्थलपर महावर लगे हुए अपने पैरके अँगूठेसे छाप लगायी थी। वह क्या थी मानो 'यह हमारा पति है। इस बातको सूचित करनेवाला चिहही था। परन्तु वह विषय भी यहाँ १. प्रभास्करम् अ०। २. विमानम् । ३. मेरु । ४. यवनिका। ५. नितरां गढ़ो निगूडः, प्रेम्णः सदभावः अस्तित्वं प्रेमसद्भावः । निगढ़ः प्रेमसदभावो यस्याः सा। कैतवेनापादिता ईा यस्याः सा। निगूढप्रेमसभावा चासो कैतवापादिता च तया। ६. मध्ये। ७. अखात्। ८. गुरुः पिहितास्रवः । ९. रहसि । १०. वल्लभाया भावो वाल्लम्यं तस्य चिह्नम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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