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Seventh Chapter Everything seems to be flashing before my eyes. But my mind is wavering as to where my husband Lalitanga was born. ||100|| Hearing this, the king replied, "My dear daughter, I was expelled from the Achyuta heaven before you two were expelled from the heaven. ||101|| I was born in this city as the son of King Yashodhara and Queen Vasundhara, named Vajradanta. ||102|| When there were fifty thousand years remaining in your lifespan, I was expelled from heaven. ||103|| After you both enjoyed your remaining lifespan, you were expelled from heaven and were born as a prince and princess in this very land. ||104|| Your Lalitanga will be united with the prince on the third day from today. Your friend, the Pandita, will bring you all the news clearly today. ||105|| My dear daughter, Lalitanga is the son of your aunt and he will be your husband. This union is like finding a vine that you were searching for, right at your feet. ||106|| My dear daughter, your maternal aunt is coming today, so we will go to meet her." Saying this, King Vajradanta got up and went out. ||107|| At that very moment, the Pandita friend arrived. Her face was radiant and the joy on her face indicated the success of the task. She came and said to the lady, ||108|| "My dear daughter, you are blessed. Your wish has been fulfilled today. I will tell you all the news in detail, listen carefully. ||109|| When I went from here with the picture at your command, I stayed in the Mahaputa Jinalaya, which is full of wonders. ||110|| There, I spread your beautiful picture. Many fools who considered themselves wise did not understand its meaning. ||111||
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________________ सप्तमं पर्व प्रत्यक्षमिव तत्सर्वं परिस्फुरति मे हृदि । किंतु कान्तः क्क मे जात इति दोलायते मतिः ॥१००॥ इति ब्रुवाणां तां भूयः प्रत्युवाच नराधिपः । पुत्रि स्वर्गस्थयोरेव युवयोः प्राक्च्युतोऽच्युतात् ॥१०१॥ नगर्यामिह धुर्योऽहं यशोधरमहीपतेः । देव्या वसुंधरायाश्च वज्रदन्तः सुतोऽभवम् ॥ १०२ ॥ "नियुतार्द्धप्रसंख्यानि' पूर्वाण्यायुः स्थितौ यदा । 'भवतोः परिशिष्टानि तदाहं प्रच्युतो दिवः ॥ १०३ ॥ युषां च परिशिष्टायुर्भुक्त्वान्ते त्रिदिवाच्च्युतौ । जातौ यथास्वमत्रैव विषये राजदारकौ ॥ १०४ ॥ जनितस्तृतीयेऽह्नि ढलिताङ्गचरेण ते । संगमोऽचैव तद्वार्ता पण्डितानेष्यति' स्फुटम् ॥१०५॥ "पैतृष्वस्त्रीय एवायं तव मर्ता भविष्यति । तदियं मृग्यमाणैव वल्ली पादेऽवसज्यते" ॥१०६॥ मातुलान्यास्तवायाम्त्या वयमप्यद्य पुत्रिके । प्रत्युद्गच्छाम इत्युक्त्वा राजोत्थाय ततोऽगमत् ॥ १०७॥ पण्डिता तत्क्षणं प्राप्ता प्रफुलबदनाम्बुजा । मुखरागेण संलक्ष्य कार्यसिद्धिरुवाच ताम् ॥ १०८ ॥ स्वं दिष्ट्या वर्द्धसे कन्ये पूर्णस्तेऽच मनोरथः । सप्रपन्न्वं च तद्वच्मि सावधानमितः शृणु ॥ १०९ ॥ यंदा पट्टकमादाय गताई "त्वविदेशतः । तदास्यां विपुलाश्वर्ये महापूतजिनालये ॥ ११०॥ मया तत्र विचित्रस्य पट्टकस्य प्रसारणे । बहवस्तदविज्ञाय गताः पण्डितमानिनः ॥ १११ ॥ 43 मुझे याद है तथा अंजनगिरि और स्वयम्भूरमण समुद्रमें जो विहार किये थे वे सब मुझे याद ॥ ९९ ॥ हे पिताजी, वे सब बातें प्रत्यक्षकी तरह मेरे हृदय में प्रतिभासित हो रही हैं किन्तु मेरा पति ललितांग कहाँ उत्पन्न हुआ है ? इसी विषयमें मेरा चित्त चंचल हो रहा है ॥१००॥ इस प्रकार कहती हुई श्रीमतीसे वादन्त पुनः कहने लगे कि हे पुत्रि, जब तुम दोनों स्वर्ग में स्थित थे तब मैं तुम्हारे च्युत होनेके पहले ही अच्युत स्वर्गसे च्युत हो गया था और इस नगरी में यशोधर महाराज तथा बसुन्धरा रानीके बजदन्त नामका श्रेष्ठ पुत्र हुआ हूँ ।। १०१-१०२ ।। जब आप दोनोंकी आयुमें 'पचास हजार पूर्व वर्ष बाकी थे तब मैं स्वर्गसे च्युत हुआ था ॥ १०३ ॥ तुम दोनों भी अपनी बाकी आयु भोगकर स्वर्गसे च्युत हुए और इसी देश में यथायोग्य राजपुत्र और राजपुत्री हुए हो ।। १०४ ।। आजसे तीसरे दिन तेरा ललितांगके जीव राजपुत्रके साथ समागम हो जायेगा । तेरी पण्डिता सखी आज ही उसके सब समाचार स्पष्ट रूपसे लायेगी ॥१०५॥ हे पुत्र, वह ललितांग तेरी बुआके ही पुत्र उत्पन्न हुआ है और वही तेरा भर्ता होगा। यह समागम ऐसा आ मिला है मानो जिस बेलको खोज रहे हों वह स्वयं ही अपने पाँवमें आ लगी हो ॥ १०६ ॥ हे पुत्र, तेरी मामी आज आ रही हैं इसलिए उन्हें लानेके लिए हम लोग भी उनके सम्मुख जाते हैं ऐसा कहकर राजा वज्रदन्त उठकर बहाँसे बाहर चले गये ॥ १०७ ॥ १४७ राजा ये ही थे कि उसी क्षण पण्डिता सखी आ पहुँची। उस समय उसका मुख प्रफुलित हो रहा था और मुखकी प्रसन्न कान्ति कार्यकी सफलताको सूचित कर रही थी। वह आकर श्रीमतीसे बोली ||१०८|| हे कन्ये, तू भाग्यसे बढ़ रही है ( तेरा भाग्य बड़ा बलवान् है ) । आज तेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है । मैं विस्तार के साथ सब समाचार कहती हूँ, सावधान होकर सुन || १०९ || उस समय मैं तेरी आज्ञासे चित्रपट लेकर यहाँ से गयी और अनेक आश्चयोंसे भरे हुए महापूत नामक जिनालय में जा ठहरी ॥११०॥ मैंने वहाँ जाकर तेरा विचित्र चित्रपट फैलाकर रख दिया। अपने-आपको पण्डित माननेवाले कितने ही मूर्ख लोग उसका आशय नहीं ---- १. मनः म०, ल० । २. सतोः । संख्यानि । ६. युवयोः ७. भविष्यति । १०. इदं पदं देहलीदीपन्यायेन संबन्धनीयम् । १३. तदा ल० । १४. तवाज्ञातः । ३. धुरंधरः । ४. वियुतार्द्ध-ल० । ५. पञ्चाशत्सहस्र८. गृहीत्वा आगमिष्यति । ९. पितुर्भगिन्याः पुत्रः । ११. संसक्ता भवति । १२. अभिमुखं गच्छामः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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