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________________ १२३ षष्ठं पर्व मुकुटोझासिनो मेरुम्मन्यस्य शिरसोऽन्तिके । बाहू तस्यायतौ नीलनिषधाविव रेजतुः ॥३०॥ सरिदावरीगम्भीरा नामिमध्येऽस्य निर्बभौ । नारीकरिणीरोधे वारीखातेव हृझुवा ॥३८॥ रसनावेष्टितं तस्य कटीमण्डलमाबभौ । हेमवेदीपरिक्षिप्तमिव जम्बूद्रमस्थलम् ।।३९॥ उरुद्वयममात्तस्य स्थिरं वृत्तं सुसंहतम् । रामामनोगजालानस्तम्मलीला समुद्वहत् ॥४०॥ जङ्के वज्रस्थिरे नास्य ब्यावयेते मयाधुना । तबाम्नैव गतार्थत्वात् पौनरुक्त्यविशङ्कया ॥४॥ चरणद्वितयं सोऽधादारक्तं मृदिमान्वितम् । श्रितं श्रियानपायिन्या "संचारीव स्थलाम्बुजम् ॥४२॥ रूपसंपदमुष्यैषा भूषिता श्रुतसंपदा । शरश्चन्द्रिकयेवेन्दोः मूर्तिरानन्दिनी दृशाम् ॥४३॥ "पदवाक्यप्रमाणेषु परं प्रावीण्यमागता । तस्य धीः सर्वशास्त्रेषु दीपिकेव व्यदीप्यत ॥४४॥ स कलाः सकला विद्वान् विनीतारमा जितेन्द्रियः । राज्यलक्ष्मीकटाक्षाणां लक्ष्यतामगमत् कृती॥४५॥ निसर्गजा गुणास्तस्य विश्वं जनमरअयन् । जनानुरागः सोऽपुण्यात् महतीमस्य योग्यताम् ॥४६॥ अनुरागं सरस्वत्यां कीया "प्रणयनिघ्नताम् । लक्ष्म्यां' वाल्लभ्यमातम्वन् विदुषां मनि सोऽभवत्॥४०॥ स तथापि कृतप्रज्ञो यौवनं परिमापिवान् । स्वयंप्रभानरागेण 'प्रायोऽमत स्त्री निःपाः ॥१८॥ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm हो ॥३६।। मुकुटसे शोभायमान उसका मस्तक ठीक मेरु पर्वतके समान मालूम होता था और उसके समीप लम्बी भुजाएँ नील तथा निषध गिरिके समान शोभायमान होती थीं ॥३७॥ उसके मध्य भागमें नदीकी भँवरके समान गम्भीर नाभि ऐसी जान पडती थी मानो सियोंको दृष्टिरूपी हथिनियोंको रोकने के लिए कामदेवके द्वारा खोदा हुआ एक गड्ढा ही हो ॥३८॥ करधनीसे घिरा हुआ उसका कटिभाग ऐसा शोभायमान था मानो सुवर्णकी वेदिकासे घिरा हुआ जम्बूवृक्षके रहनेका स्थान ही हो ॥३९॥ स्थिर गोल और एक दूसरेसे मिली हुई उसकी दोनों जाँघे ऐसी जान पड़ती थीं मानो त्रियोंके मनरूपी हाथीको बाँधने के लिए दो स्तम्भ ही हों।॥४०॥ उसकी वनके समान स्थिर जंघाओं (पिंडरियों) का तो मैं वर्णन ही नहीं करता क्योंकि वह उसके वनजंघ नामसे हो गतार्थ हो जाता है। इतना होनेपर भी यदि वर्णन करूँ तो मुझे पुनरुक्ति दोषकी आशंका है ॥४१॥ उस वनजंघके कुछ लाल और कोमल दोनों चरण ऐसे जान पड़ते थे मानो अविनाशिनी लक्ष्मीसे आश्रित चलते-फिरते दो स्थलकमल ही हों ॥४२॥ शास्त्रज्ञानसे भूषित उसकी यह रूपसम्पत्ति नेत्रोंको उतना ही आनन्द देती थी जितना कि शरद् ऋतुकी चाँदनीसे भूषित चन्द्रमाकी मूर्ति देती है।।४।। पद वाक्य और प्रमाण आदिके विषयमें अतिशय प्रवीणताको प्राप्त हुई उसकी बुद्धि सब शास्त्रों में दीपिकाके समान देदीप्यमान रहती थी ॥४४॥ वह समस्त कलाओंका ज्ञाता विनयी जितेन्द्रिय और कुशल था इसलिए राज्यलक्ष्मीके कटाक्षोंका भी आश्रय हुआ था, वह उसे प्राप्त करना चाहती थी॥४५॥ उसके स्वाभाविक गुण सब लोगोंको प्रसन्न करते थे तथा उसका स्वाभाविक मनुष्यप्रेम उसकी बड़ी भारी योग्यताको पुष्ट करता था ॥४६॥ वह वनजंघ सरस्वतीमें अनुराग, कीर्तिमें स्नेह और राज्यलक्ष्मीपर भोग करनेका अधिकार (स्वामित्व) रखता था इसलिए विद्वानोंमें सिरमौर समझा जाता था ॥४७॥ यद्यपि वह बुद्धिमान् वनजंघ उत्कृष्ट यौवनको प्राप्त हो गया था तथापि स्वयंप्रभाके अनुरागसे वह प्रायः अन्य स्त्रियोंमें निस्पृह ही रहता था॥४८॥ १. आत्मानं मेरुमिव मन्यत इति मेझम्मन्यस्तस्य । २. तस्यायिती ल.। ३. वारीः गजवारणगतः 'वारी तु गजबन्धिनी' इत्यभिधानात् । ४. रशना-प० । ५. निविडम् । ६. बन्धस्तम्भशोभाम् । ७. विवयेते अ०, स०। ८. ज्ञातार्थत्वात् । ९. मृदुत्वम् । १०. संचरणशीलम् । ११. शब्दागमपरमागमयुक्त्याममेषु । १२. टिप्पणवत् । १३. ज्ञातवान् । १४. स्नेहाधीनताम् । १५. वल्लभत्वम् । १६. इव ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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