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तृतीयं पर्व
युगमुख्यमुपासीना' नामं मनुमपश्चिमम् । ते तं विज्ञापयामासुरिति दोनगिरो नराः ॥ १९२॥ जीवामः कथमेवाद्य नाथानाथा विना द्रमैः । कल्पदायिभिराकल्प मविस्मार्यैरपुण्यकाः ॥ १९३॥ इमे केचिदितो देव तरुभेदाः समुत्थिताः । शाखामि ः फलनम्राभिराह्वयन्तीव नोऽधुना ॥ १९४॥ किमिमे परिहर्तव्याः किंवा भोग्यफला इमे । फलेग्रहीनिमेऽस्मान् वा निगृह्णन्त्यनुपान्ति वा ॥ १९५ ॥ अमीषामुपशल्येषु केऽप्यमी तृणगुल्मकाः । फलन शिखा भान्ति विश्वदिक्कमितोऽमुतः ॥१९६॥. क एषामुपयोगः स्याद् विनियोज्याः कथं नु वा । किमिमे स्वैरसंग्राह्या न वेतीदं वदाद्य नः ॥ १९७॥ त्वं देव सर्वमप्येतद् वेत्सि नाभेऽनभिज्ञकाः । पृच्छामो वयमद्यार्त्तास्ततो ब्रूहि प्रसीद नः ॥ १९८ ॥ "इतिकर्तव्यतामूढा "नतिमीतांस्तदार्यकान् । नाभिर्न "भेयमित्युक्त्वा व्याजहार पुनः स तान् ॥ १९९ ॥ इमे ' 'कल्पतरूच्छेदे ब्रुमाः पक्वफलानताः । युष्मानथानुगृह्णन्ति पुरा कल्पद्रुमा यथा ॥ २००॥ मद्रास्तदिमे मोग्याः कार्या न भ्रान्तिरत्र वः । अमी च परिहर्तव्या दूरतो विषवृक्षकाः ॥ २०१ ॥ इमाव 3 नामौषधयः " स्तम्बकर्यादयो मताः । एतासां भोज्यमन्नाद्यं व्यञ्जनाद्यः सुसंस्कृतम् ॥ २०२॥
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रही थी परन्तु उनके शान्त करनेका कुछ उपाय नहीं जानते थे इसलिए जीवित रहनेके संदेहसे उनके चित्त अत्यन्त व्याकुल हो उठे । अन्तमें वे सब लोग उस युगके मुख्य नायक अन्तिम कुलकर श्री नाभिराजके पास जाकर बड़ी दीनतासे इस प्रकार प्रार्थना करने लगे ॥ १९१-१९२।। हे नाथ, मनवांछित फल देनेवाले तथा कल्पान्त काल तक नहीं भुलाये जानेके योग कल्पवृक्षोंके बिना अब हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार जीवित रहें ? ॥१९३॥ हे देव, इस ओर ये अनेक वृक्ष उत्पन्न हुए हैं जो कि फलोंके बोझसे झुकी हुई अपनी शाखाओंद्वारा इस समय मानो हम लोगोंको बुला ही रहे हों || १९४ || क्या ये वृक्ष छोड़ने योग्य हैं ? अथवा इनके फल सेवन करने योग्य हैं ? यदि हम इनके फल ग्रहण करें तो ये हमें मारेंगे या हमारी रक्षा करेंगे ? ॥ १९५ ॥ तथा इन वृक्षोंके समीप ही सब दिशाओंमें ये कोई छोटी-छोटी झाड़ियाँ जम रही हैं, उनकी शिखाएँ फलोंके भारसे झुक रही हैं जिससे ये अत्यन्त शोभायमान हो रही हैं ॥। १९६ ।। इनका क्या उपयोग है ? इन्हें किस प्रकार उपयोगमें लाना चाहिए ? और इच्छानुसार इसका संग्रह किया जा सकता है अथवा नहीं ? हे स्वामिन्, आज यह सब बातें हमसे कहिए || १९७|| हे देव नाभिराज, आप यह सब जानते हैं और हम लोग अनभिज्ञ हैं-मूर्ख हैं अतएव दुखी होकर आपसे पूछ रहे हैं इसलिए हम लोगोंपर प्रसन्न होइए और कहिए || १९८ || इस प्रकार जो आर्य पुरुष हमें क्या करना चाहिए इस बिषयमें मूद थे तथा अत्यन्त घबड़ाये हुए थे 'उनसे डरो मत' ऐसा कहकर महाराज नाभिराज नीचे लिखे वाक्य कहने लगे || १९९|| चूँकि अब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं इसलिए पके हुए फलोंके भारसे नम्र हुए ये साधारण वृक्ष ही अब तुम्हारा वैसा उपकार करेंगे जैसा कि पहले कल्पवृक्ष - करते थे ||२००|| हे भद्रपुरुषो, ये वृक्ष तुम्हारे भोग्य हैं इस विषय में तुम्हें कोई संशय नहीं करना चाहिए । परन्तु ( हाथका इशारा कर ) इन विषवृक्षोंको दूरसे ही छोड़ देना चाहिए || २०१ ॥ ये स्तम्बकारी आदि कोई ओषधियाँ हैं, इनके मसाले आदिके
१. उपासीनाः [समीपे उपविष्टाः ] । २. मुख्यम् । ३. अभीष्टदैः । ४. फलानि गृह्णतः । ५. रक्षन्ति । ६. समीपभूमिषु । ७. सर्वदिक्षु । ८. विनियोग्याः प० । ९. कर्तव्यं कार्यम् । १०. -नतिभ्रान्तांस्तदा स०, ल०, द० । ११. न भेतव्यम् । १२. कल्पवृक्षहानी । १३. काश्चनोषध्यः अ०, प०, म०, ५०, ल० । ओषध्यः फलपाकान्ताः । १४. ब्रीह्मादयः ।