________________
i
j
अचल अखंडपद रुचि की धरैया भ्रम-भाव की हरैया एक ज्ञानगुनधारिनी । सकति अनंत को विचार करें बार-बार, परम अनूप निज रूप को उघारिनी' ।। सुख को समुद्र चिदानंद देखे घट मांहि, मिटे भव बाधा मोखपंथ की विहारिनी' ।। 'दीप' जिनराज सो' सरूप अवलोके ऐसी, संतन की मति महामोक्ष अनुसारिनी ||७|| चेतनसरूप जो अनूप है अनादि ही को, निहचे निहारि एकता ही को चहतु हैं। स्वपरविवेक कला पाई नित पावन है, आतमीक भावन में थिर है रहतु हैं। अचल, अखंड अविनासी, सुखरासी महा, उपादेय जानि चिदानंद को गहतु हैं। कहे 'दीपचंद' ते ही आनंद अपार लहि, भवसिंधुपार शिवद्वीप को लहतु हैं । ८ ।। चेतन को अंकर एक सदा निकलंक महा करम कलंक जामें कोऊ नहीं पाइये || निराकार रूप जो अनूप उपयोग जाके, ज्ञेय लखे ज्ञेयाकार न्यारो ह बताइये || बीरज अनंत सदा सुख को समुद्र आप. परम अनंत तामें और गुण गाइये ।। ऐसो भगवान ज्ञानवान लखे घट ही में, ऐसो भाव भाय 'दीप' अमर कहाइये ।।६।।
4 प्रकट करने वाली, र विलास करने वाली ३ जिनदेव के समान (केवलज्ञान प्रकाशमय ) ४ मोक्ष रूपी द्वीप, ५ ऑक स्वरूप ६ जिसमें ७ भिन्न, ८ भावना मा
फर
५५