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प्रस्तावना
तीर्थंकर महावीर की अनवच्छिन्न परम्परा में केवली, श्रुतकेवली तथा श्रुतधर आचार्यों की सुदीर्घ श्रृंखला में जिनागम तथा जिनश्रुत की रचना की गई। कालान्तर में प्राकृत तथा संस्कृत भाषाओं में निबद्ध ग्रन्थों का भावार्थ दुरूह होने से तथा शिथिलाचार की प्रवृत्ति में यतियों का तथा दिगम्बर सम्प्रदाय में विशेषतः भट्टारकों का प्रभुत्व बढ़ जाने से यापनीय संघ प्रबल हो गया, जिससे मूलसंघ विस्मृत-सा हो गया। यद्यपि छठी सदी के पूर्व भारतीय देवी-देवताओं का अभिषेक नहीं होता था, लेकिन सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ होते ही दक्षिण भारत में पंचामृत (जल, इक्षुरस, धृत, दुग्ध, दधि) अभिषेक होने लगा था। दिगम्बर सम्प्रदाय मे बीसपन्य में इसका प्रारम्प नीय मात्र से हुक । जैनधर्म में कर्मकाण्ड तथा शिथिलाचार पनपने का मुख्य द्वार यापनीय संघ रहा है। यही कारण है कि इसकी गिनती जैनाभास संघों में की गई है। शिलालेखीय उल्लेखों से पता चलता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में यह एक प्रबल उप-संप्रदाय हो गया था । जो 'भट्टारक' शब्द प्राचीन काल में सम्मान सूचक एक विशेषण था, वह मध्यकाल में एक वर्ग विशेष के लिए रूद हो गया । यह काल का ही प्रभाव है कि शिथिलाचार साधु-वर्ग में ही नहीं, जैन गृहस्थों में भी बुरी तरह फैल गया है। इससे अधिक दुःख तथा खेद की क्या बात हो सकती है कि आज जैनियों के घर में "चौका" नहीं रहे। "चौका' की परम्परा उठ जाने से खान-पान तथा पहिनाव, उठना-बैठना सब में भ्रष्टाचार फैल गया है।
प्रस्तुत "अध्यात्म पंचसंग्रह" की रचना करने वाले कविवर पं० दीपचन्द कासलीवाल का जन्म ऐसे ही समय में हुआ था, जब इस देश में रहने वाला प्रत्येक वर्ग का पुरुष घोर अज्ञान–अन्धकार में साँस ले रहा था। उस समय के राजस्थान के शासक भी निष्क्रिय थे। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने अवश्य हिन्दुओं के प्रभाव को एक बार पुनः स्थापित किया । वर्तमान जयपुर का निर्माण उनकी ही देन है। परन्तु सवाई जयसिंह के पुत्र ईश्वरसिंह के शासन (१७४४-१७५० ई०) सम्भालते ही विघटन प्रारम्भ हो गया था। अतः जनता दुखी थी।