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अर्थ-सम्यज्ञान प्रवाहका क्षणरूप मध्य (निर्विकल्प) होता है और क्षणरूप तट (सविकल्प) होता है, परन्तु रूप छोड़कर नहीं जाता, यह सम्यक्त्वका माहात्म्य है।
अनुभव के दोहा
हूँ चेतन हूँ ज्ञान, हूँ दर्शन सुख भोगता। हूँ अर्हन्त सिद्ध महान, हूँ ही हूँ को पोषता।।२३।।
___ अर्थ-मैं चेतन हूँ, मैं ज्ञान हूँ, मैं दर्शन हूँ, मैं सुखका भोक्ता हूँ, मैं अर्हन्त-सिद्ध महान हूँ, मैं ही का पोषक हूँ।
जैसे फटिक के बिंब में, रह्यो समाय जोति को खंध। पृथक मूर्ति परकास की, बंधी प्रत्यक्ष फटिक के मंध।।२४।।
अर्थ-जैसे स्फटिक के बिंब में दीप ज्योति का स्कंध समा रहा है, परन्तु स्फटिक में प्रकाश की प्रत्यक्ष भिन्न मूर्ति है।
तैसे यह कर्म स्कंध में समाय रहा हूं चेतन दर्द । पै पृथक् मूर्ति चेतनमई, बंधी त्रिकालगत सर्व।।२५।।
अर्थ-उसी प्रकार इस कर्म-स्कंध में मैं चेतन द्रव्य समा रहा हूं, परन्तु तीनों काल सर्वज्ञ स्वभावी चेतनमयी मूर्ति पृथक रहती
है।
नख सिख तक इस देह में निवसत हूं मैं चेतनरूप। जिस क्षण हूं ही को लखू, ता क्षण मैं हौ चेतनभूप।।२६।।
अर्थ-नख से लेकर शिखा तक इस शरीर में मैं चेतनरूप पुरुष
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