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अर्थ- बुद्धिरूपी धारा सदा यथायोग्य जानती देखती है। वह धारा क्षयोपशम आकाररूप होने से स्वयं ही देखती जानती
है ।
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पुनः
बुद्धि परनति षट्भेद, भए एक जीव परनाम के फरस, रस, घ्राणैक, श्रोत्र, चक्षु, मन छठवां ||१२||
अर्थ - एक जीव के परिणाम की, बुद्धि परिणति के भेद से छह तरह की है जो इस तरह हैं- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, और मन ।
दोहा
भिन्न-भिन्न ज्ञेयहि उपरि भए भिन्न थान के ईश तातैं इनको इन्द्र पद, धर्यो वीर जगदीस | | १३ ||
अर्थ (उपयोगके पांच इन्द्रिय भेद) भिन्न-भिन्न ज्ञेयों पर भिन्न-भिन्न स्थान (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द) के ईश हुए (जानते हैं अतः ईश कहलाते हैं), अतएव तीन लोक के ईश वीर जिनेन्द्र ने इन को इन्द्रपद नाम दिया।
पुनः
ज्ञेयहि लक्षन भेद को, मानइ चिंतइ जो ज्ञान । ताको मन चित्त संज्ञा धरी, लखियो चतुर सुजान ||१४||
१९७२