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अर्थ-वस्तुकी सिद्धि से चारित्र की सिद्धि है, चारित्रकी सिद्धि से वस्तुकी सिद्धि है (वस्तु के आश्रय से ही चारित्र परिणाम होता है और चारित्रपरिणाम बिना वस्तुका स्वाद नहीं आता), जब मलिन चारित्र है, तब रंक के समान है और चारित्र शुद्ध होने पर अनंत ऋद्धि वाला है।
इन चरन पर के वसि कियो, जिय को हो संसार। निज घर में तिष्ठ कर, लहे जगत स्यों पार ।।५।।
अर्थ-परवश आचरण से जीवको संसार होता है, किन्तु निज घर में स्थित होने से जगत से पार होता है।
व्यापक को निश्चम महो. अव्यापक व्यवहार। व्याप अध्यापक फेर स्यों, भया एक द्वय प्रकार।।६।।
अर्थ-व्यापक को निश्चय कहते हैं और अव्यापक को व्यवहार कहते हैं। व्यापक-अव्यापक के भेद से एक दो प्रकार कहा जाता है।
स्वप्रकास निश्चय कहा, पर परकासक व्यवहार। व्यापक अव्यापक भाव स्यों, तातै वानी अगम अपार ।७।!
अर्थ-ज्ञान को स्वप्रकाशक निश्चय से कहते हैं और परप्रकाशक व्यवहार से कहते हैं। उसे व्यापक. अव्यापक भाव के भेद से भी कहा जाता हैं। अत: जिनवाणी अगम और अपार है।
क्षण में देखो अपनी व्यापकता, इस जिय थल स्यों सदीव। तातै भिन्न हूं लोक तें, रहूं सहज सुकीव।।८।।
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