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सहज स्वरस को प्राप्त करे, कर्मबन्धन को मिटाये, निज में निज परिणति लगाये, श्रेष्ठ चिद् गुणपर्याय को ध्याये, तब हर्ष पाये, मन विश्राम आये, जो स्वरसास्वाद को पाये, उसे निजानुभव कहा जाता है। जिनागम में ऐसी बात कही है कि स्वयं के अवलोकन से शुद्ध उपयोग होता है"। कहा है
ज्ञान उपयोग योग जाको न वियोग हुओ, निचे निहारे एक तिहुँ लोक भूप है । चेतन अनन्त रूप सासतो विराजमान, गति-गति भ्रम्यो तोक अमल अनूप है। जैसे मणिमांहि कोऊ काँचखण्ड माने तोऊ, महिमा न जाय वामें वाही को सुरूप है। ऐसे ही सम्भारि के सरूप को विचार्यों मैं,
अनादि को अखण्ड मेरो चिदानन्द रूप है। (ज्ञानदर्पण, पद्य ३०)
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"स्वानुभव होने पर निर्विकल्प सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । उसे स्वानुभव कहो या कोई निर्विकल्प दशा कहो या आत्मसम्मुख उपयोग कहो या भावमति, भावश्रुत कहो या स्वसंवेदन भाव, वस्तुमग्नभाव या स्व आचरण कहो, स्थिरता कहो, विश्राम कहो, स्वसुख कहो, इन्द्रियमनातीतभाव. शुद्धोपयोग स्वरूपमग्न या निश्चयभाव, स्वरससाम्यभाव, समाधिभाव वीतरागभाव, अद्वैतावलम्बीभाव, चित्तनिरोधभाव, निजधर्मभाव, यथास्वादरूप भाव- इस प्रकार स्वानुभव के अनेक नाम हैं, तथापि एक स्वस्वादरूप अनुभवदशा' ऐसा मुख्य नाम
जानना ।
जो सम्यग्दृष्टि चतुर्थ (गुणस्थान) का है, उसके तो स्वानुभव का काल लघु अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। (फिर) वह दीर्घकाल पश्चात् होता है। उससे देशव्रती का स्वानुभव रहने का काल अधिक है और वह स्वानुभव अल्पकाल पश्चात् होता है। सर्वविरति का स्वानुभव दीर्घ अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। ध्यान से भी होता है तथा अति अल्पकाल के पश्चात् स्वानुभव सातवें गुणस्थान में बारम्बार होता ही रहता है।" ( अनुभवप्रकाश, पृ० ५२-५३)
वधू