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सहज ही बने ते आप पद पावना है, ताके पावे को कहि कहाँ विषमताई है। आप ही प्रकास करे कौन पै छिपायो जाय, ताको नहीं जाने यह अचरजिताई है।। आप ही विमुख ह्वै के संशय में परे मूढ, कहे गूढ कैसे लखे देत न दिखाई है। ऐसी भ्रमबुद्धि को विकार तजि आप भजि, अविनासी रिद्धिसिद्धि दाता सुखदाई है ।।४६ ।। देवन को देव ह्वै के काहे पर सेव करे, टेव अविनासी तेरी देखि आप ध्यान मे। जाने भवबाधा को विकार सो दिल्या जाय. प्रगटे अखंड ज्योति आप निजज्ञान में।। तामें थिर थाय मुख आतम लखाय आप, मेटि पुन्य-पाप वे जिय सिव थान में। शिवतिया भोग करि सासतो सुथिर रहे, देव अविनासी महापद निरवाण में ।।४७ ।। देव अविनासी सुखरासी सो अनादि ही को, ज्ञान परकासी देख्यो एक ज्ञानभाव तैं। अनुभौ अखंड भयो सहज आनंद लयो, कृतकृत्य भयो एक आतमा लखाव तैं। चिदज्योतिधारी अविकारी देव चिदानंद, भयो परमातमा सो निज दरसाव तैं। निरवाणनाथ जाकी संत सब सेवा करें, ऐसी निज देख्यो निजभाव के प्रभाव तैं 11४८ ।। अतुल अबाधित अखंड देव चिदानंद,
१ आश्चर्यकारी. २ वृत्ति, आदत, ३ विलीन हो जाता है. ४ शाश्वत, नित्य
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