________________
सुद्ध पक्ष देखे स्वसुभावरूप आप है। कनक' अनेक वान' भेदको धरत तोऊ', अपने सुभाव में न दूसरो मिलाप है। भेद भाव धरहू अभेदरूप आतमा है, अनुभौ किए ते मिटे भवदुखताप है। जानत विशेष यो असेष भाव भासतु है, चिदानंद देव में न कोऊ पुण्य पाप है।।१८६ ।। फटिक के हेठि जब जैसी रंग दीजियत, तैसो प्रतिभासे वामें- वाही. को सो रंग है। अपनो सुभाव सुद्ध उज्जल विराजमान, ताको नहीं तजे और गहे नहिं संग है। तैसे यह आतमा हूं पर मांहि पर ही सो भासे, पै सदैव याको चिदानंद अंग है। याही ते अखंड पद पावे जग माहि जेई, स्यादवादनय गहे सदा सरंवंग* है। [१६० ।।
छप्पय
परम अनूपम ज्ञानजोति लछमी करि मंडित। अचल अमित आनंद सहज ते भयो अखंडित । सुद्ध समय में सार रहित भवभार निरंजन परमातम प्रभु पाय भव्य करि है भवभंजन। महिमा अनंत सुखसिंधु में, गणधरादि वंदित चरण। शिवतिय वर तिहुलोकपति जय-जय-जय जिनवरसरण ।
१ स्वर्ण, २ स्वरूप. २ तब भी. ४ सम्पूर्ण, ५ किसी प्रकार का, ६ स्फटिक मणि. ७ पास में, ८ उसमें, ६ वे ही. १० सम्पूर्ण, अखण्ड, ११ संसार-भार
११४