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देववाणि गुरु परखि परीक्षा कर यह, करि प्रतीति मन में धरे। कहे 'दीपचंद' है नंदित', अविनासीसुख को वरे ।।१२० ।।
सवैया धरे गुणवृंद सुखकंद है सरूप मेरो, जामे परफंद' को प्रवेश नाहिं पाइये। देव भगवान चिदानंद ज्ञानजोति लिए, अचल अनंत जाकी महिमा बताइये। परम प्रताप में न ताप भव भासतु है, अचल अखंड एक उर में लखाइये। अनुभौ अनूप रसपान ले अमर हूजे, सासतो सुथिर जस जुग-जुग गाइये ।।१२१।। चेतनाविलास जामें आनन्दनिवास नित, ज्ञान परकास धरे देव अविनासी है। चिदानन्द एक तू ही सासतो निरंजन है, महा भयभंजन है सदा सुखरासी है।। अचल अखंड शिवनाथन को रमैया तू है, कहा भयो जो तो होय रह्यो भववासी है। सिद्ध भगवान जैसो गुण को निधान तू है, निहचे निहारि निधि आप परकासी है। 1१२२।। रमणि रमाव मांहि रति मानि राच्यो महा. माया में मगन प्रीति करे परिवार सों। विषैभोग सोंज विषतुल्य सुधापान जाने, हित न पिछाने बंध्यो अति भव-भार सों।। एक इंद्री आदि ले असैनी परिजंत' जहां, तहां ज्ञान कहां रुक्यो करम विकार सों। १ मुद्रित पाठ है-वंद सो. २ राग-द्वेष. ३ संयोग, साझेदारी, ४ पर्यन्त